सन 1325 में दिल्ली का सुल्तान ग़यासुद्दीन तुग़लक़ बंगाल में बड़ी जीत के बाद दिल्ली लौट रहा था तभी उसके साथ एक बड़ी दुर्घटना हो गई.
दिल्ली से चंद किलोमीटर पहले उसके स्वागत में बनाया गया एक लकड़ी का मंडप धराशायी होकर उसके ऊपर ही गिर गया और सुल्तान की मृत्यु हो गई.
इस बात का ज़िक्र मध्यकालीन इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी की किताब 'तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही' में मिलता है, जिसमें ये भी लिखा है, "बारिश में बिजली गिरने के बाद ये मंडप धराशायी हो गया था.''
ग़यासुद्दीन ने पहले से ही तुग़लक़ाबाद में अपने लिए एक मक़बरा बनवा रखा था. उसी रात उसे वहाँ दफ़्ना दिया गया. हालांकि कुछ दूसरे इतिहासकारों ने मंडप गिरने के उस वाक़ये को एक षड्यंत्र भी बताया है.
बहरहाल, तीन दिन बाद ग़यासुदीन के बेटे जौना ने दिल्ली की गद्दी संभाली और अपने आप को नया नाम दिया मोहम्मद बिन तुग़लक़.
इस तरह दिल्ली सल्तनत के तीन शताब्दियों के इतिहास के सबसे विवादास्पद और उतार-चढ़ाव वाले समय की शुरुआत हुई.
मोहम्मद बिन तुग़लक़ के समय में ही मोरक्को का एक यात्री इब्न बतूता भारत आया और उसने मोहम्मद बिन तुग़लक़ के दरबार में दस साल बिताए.
मोहम्मद बिन तुग़लक़ के पिता के ज़माने के इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी ने भी ख़ुद मोहम्मद बिन तुग़लक़ के दरबार में लंबे समय तक काम किया.
मशहूर इतिहासकार अब्राहम इराली अपनी किताब 'द एज ऑफ़ रॉथ' में लिखते हैं, "बरनी ने मोहम्मद बिन तुग़लक़ का दरबारी होते हुए भी उसकी ख़ामियों और उसके कुकर्मों का वर्णन किया है, हालाँकि उसके कुछ अच्छे कामों की उसने तारीफ़ भी की है. लेकिन इब्न बतूता ने मोहम्मद बिन तुग़लक़ के बारे में जो लिखा, वह ज़्यादातर खुलकर लिखा क्योंकि उसने भारत से लौटने के बाद इनको लिखा था और उसे मोहम्मद बिन तुग़लक़ की प्रतिकूल टिप्पणियों का कोई डर नहीं था.'"
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मध्यकालीन इतिहासकारों ने मोहम्मद बिन तुग़लक़ को एक दोहरे व्यक्तित्व का शख़्स क़रार दिया है जिसमें बहुत सी अच्छाइयों के साथ बहुत सी बुराइयाँ भी मौजूद थीं.
एक तरफ़ वह बेइंतहा अहंकारी था तो दूसरी तरफ़ बेहद विनम्र भी. उसके चरित्र में जहाँ घातक क्रूरता दिखाई देती है, वहीं दिल को छू लेने वाली करुणा भी साफ़ दिखती है.
इब्न बतूता अपनी किताब ''रिहला'' में उनका बिल्कुल सही चित्रण करते हुए लिखते हैं, "ये बादशाह एक तरफ़ उपहार देने का शौकीन था तो दूसरी तरफ़ ख़ून बहाने का भी. उसके दरवाज़ों पर एक तरफ़ ग़रीबों को अमीर बनाया जाता था तो दूसरी तरफ़ कुछ लोगों को मौत के घाट भी उतारा जाता था.''
एक और इतिहासकार रॉबर्ट सेवेल अपनी किताब 'ए फॉरगॉटन एम्पायर' में लिखते हैं, "एक तरफ़ मोहम्मद एक संत था जिसका हृदय शैतान का था, तो दूसरी तरफ़ एक ऐसा शैतान था जिसकी आत्मा संत की थी.''
मोहम्मद बिन तुग़लक़ हमेशा नए ढंग से सोचता था लेकिन वह व्यवहारवादी क़तई नहीं था. उसमें धैर्य की कमी और अपनी बात पर अडिग रहने का भाव था.
उस दौर के लगभग सभी इतिहासकार इस बात को मानते हैं कि आख़िरकार मोहम्मद बिन तुग़लक़ की ज़्यादातर योजनाएं उसके और उसकी प्रजा के लिए भयानक दु:स्वप्न बनकर रह गईं.
हालांकि उसने कभी भी अपनी नाकामयाबी को अपनी नाकामयाबी नहीं माना और इसके लिए हमेशा अपने लोगों को दोषी ठहराया.
इब्न बतूता लिखते हैं, "सुल्तान हमेशा ख़ून बहाने के लिए तैयार रहता था. वह लोगों की प्रतिष्ठा का ख़्याल किए बग़ैर छोटे छोटे अपराधों पर बड़ी से बड़ी सज़ा देता था. हर दिन ज़ंजीरों, बेड़ियों और रस्सियों से बंधे सैकड़ों लोग एक बड़े हॉल में लाए जाते थे. जिन लोगों को मौत की सज़ा मिलती थी उनको वहीं मौत के घाट उतार दिया जाता था. जिन लोगों को यातनाओं की सज़ा मिलती थी, उनको यातनाएं दी जाती थीं और जिन्हें पीटने की सज़ा मिलती थी उन्हें पीटा जाता था."
"एक भी दिन ऐसा नहीं बीतता था जब वहाँ ख़ून न बहाया जाता हो. उसके महल के मुख्य द्वार पर ख़ून ही ख़ून दिखाई देता था. मारे जाने वाले लोगों के शव चेतावनी के तौर पर महल के मुख्य द्वार पर फेंक दिए जाते थे, ताकि कोई सुल्तान के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की जुर्रत न कर सके. शुक्रवार को छोड़ कर सप्ताह के हर दिन मृत्यु दंड दिया जाता था.''
मध्ययुगीन शासकों की तुलना में ज्ञानी होते हुए भी मोहम्मद बिन तुग़लक़ मानवीय होने के बजाय एक कठोर व्यक्ति बन गया था.
ज़ियाउद्दीन बरनी अपनी किताब "तारीख़ ए-फ़िरोज़शाही'' में लिखते हैं, "इस्लाम धर्म की किताबों और पैग़म्बर मोहम्मद की शिक्षा में परोपकार और विनम्रता पर ज़ोर दिया गया था लेकिन मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने उन्हें ध्यान देने लायक नहीं समझा.''
इब्न बतूता लिखते हैं, "जब मोहम्मद के ममेरे भाई बहाउद्दीन गुरचस्प ने उसके ख़िलाफ़ विद्रोह किया तो मोहम्मद ने उसकी खाल उतरवा ली."
एक और घटना का ज़िक्र करते हुए इब्न बतूता ने लिखा, "एक बार जब एक धार्मिक मुस्लिम शख़्स ने मोहम्मद को तानाशाह कहा और उसको ज़ंजीरों में जकड़े रहने और 15 दिनों तक भूखा रखने के बाद भी उसने अपने शब्द वापस नहीं लिए तो सुल्तान ने उसे ज़बरदस्ती मानव मल खिलाने का आदेश दिया. सिपाहियों ने उसे ज़मीन पर लिटा कर चिमटे से उसका मुँह खोला और सुल्तान के आदेश का पालन किया."
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दिल्ली की गद्दी पर बैठने वाले 32 सुल्तानों में सिर्फ़ दो सुल्तान ऐसे हैं जिन पर क्रूरता के आरोप नहीं लगाए जा सकते.
मोहम्मद क़ासिम फ़रिश्ता ने अपनी किताब ''तारीख़-ए-फ़रिश्ता' में लिखा है, "अगर उस समय के सुल्तानों की दृष्टि से सोचा जाए तो निर्दयता और आतंक उस समय के सुल्तानों की ज़रूरत थी जिसके बिना वे शासक के रूप में बने नहीं रह सकते थे. लेकिन मोहम्मद ने इस निर्दयता को इस स्तर तक पहुंचा दिया कि उसका उल्टा असर हुआ."
"इससे उसकी ताक़त बढ़ने के बजाय और कम हो गई. इसमें कोई शक नहीं कि मोहम्मद एक पढ़ा-लिखा, सुसंस्कृत और प्रतिभाशाली शख़्स था लेकिन उसके मन में अपने लोगों के लिए दया और लिहाज़ का कोई भाव नहीं था.''

अपने शासनकाल के दौरान मोहम्मद बिन तुग़लक़ के विदेशी यात्रियों के प्रति अच्छे व्यवहार के बारे में कई इतिहासकार लिख चुके हैं.
इब्न बतूता ने इसका वर्णन करते हुए लिखा, "जैसे ही मैं सुल्तान के सामने गया उसने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, 'आपका आगमन शुभ है. कोई चिंता मत करिए'.''
बतूता के मुताबिक़ सुल्तान मोहम्मद ने उसे 6000 टंका नक़द दिए.
उसे पहले तीन और बाद में दो और गाँवों की जागीर दी गई जिससे उसे 12000 टंका की सालाना आमदनी होने लगी.
इब्न बतूता अपनी किताब में लिखते हैं, ''सेवा के लिए सुल्तान ने मुझे दस हिंदू ग़ुलाम भी दिए. यही नहीं, मुझे दिल्ली का क़ाज़ी नियुक्त कर दिया गया जबकि मुझे स्थानीय भाषा बिल्कुल नहीं आती थी. विदेशी राजाओं के लिए भी सुल्तान का व्यवहार सौहार्दपूर्ण था."
लेखक अब्राहम इराली के अनुसार, ''मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने चीन के राजा को उपहार में 100 घोड़े, 100 ग़ुलाम, 100 नर्तकियाँ, कपड़ों के 1200 थान, ज़री की पोशाकें, टोपियाँ, तरकश, तलवारें, मोतियों से कढ़े हुए दस्ताने और 15 किन्नर भिजवाए थे.''
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दिल्ली सल्तनत के इतिहास पर ग़ौर करने से शासकों और उनके अपने माता-पिता के साथ रिश्तों पर कई तरह के पहलू सामने आते हैं.
यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन के पूर्व प्रमुख और इतिहासकार सतीश चंद्रा ने अपनी किताब "मेडिवल इंडिया: फ़्रॉम सल्तनत टू मुग़ल्स" में इस बात का ज़िक्र किया है कि मोहम्मद बिन तुग़लक़ अपनी माँ को बेहद मानता था और हर मुद्दे पर उनकी सलाह लेता था. हालांकि सैनिक शिविरों में महिलाओं की उपस्थिति पर उसने रोक लगा दी थी.
कई इतिहासकारों ने लिखा है कि सुल्तान को शराब पीना भी पसंद नहीं था.
मध्यकालीन भारत के नामचीन इतिहासकार प्रोफ़ेसर इरफ़ान हबीब ने अपनी किताब 'इकोनॉमिक हिस्ट्री ऑफ़ मेडिवल इंडिया' में लिखा है, "मोहम्मद बिन तुग़लक़ की ख़ास बात ये थी कि वह बाहर से आए मुसलमानों और मंगोल लोगों के अलावा हिंदुओं को भी अहम ओहदों पर बैठा कर रखता था. साथ ही वह लोगों के मज़हब से ज़्यादा उनकी क़ाबिलियत पर उन्हें परखता था."
मिसाल के तौर पर वह अरबी और फ़ारसी भाषा का विद्वान और खगोलशास्त्र, दर्शन, गणित और तरकशास्त्र में पारंगत था.
इब्न बतूता ने मोहम्मद बिन तुग़लक़ की न्यायप्रियता के कई उदाहरण दिए हैं. "एक बार सुल्तान के एक हिंदू दरबारी ने क़ाज़ी से शिकायत की कि सुल्तान ने उसके भाई को बिना किसी कारण मौत की सज़ा दे दी. सुल्तान ने क़ाज़ी की अदालत में नंगे पाँव जाकर उसके सामने सिर झुकाया और उसके सामने खड़ा रहा. क़ाज़ी ने सुल्तान के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाया और उसे आदेश दिया कि वह दरबारी को उसके भाई की हत्या के लिए जुर्माना अदा करे. सुल्तान ने क़ाज़ी का वह आदेश माना'.
इब्न बतूता आगे लिखते हैं, ''एक बार एक व्यक्ति ने दावा किया कि सुल्तान के ऊपर उसका कुछ पैसा बक़ाया है. इस बार भी क़ाज़ी ने सुल्तान के ख़िलाफ़ फ़ैसला सुनाया और सुल्तान ने वह रक़म शिकायत करने वाले को अदा की.''
जब भारत के कई हिस्सों में भयंकर सूखा पड़ा और राजधानी में एक मन गेहूँ का दाम छह दिनार हो गया तो सुल्तान मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने आदेश दिए कि दिल्ली के हर ग़रीब-अमीर आदमी को प्रति व्यक्ति 750 ग्राम के हिसाब से छह महीने तक रोज़ भोजन सामग्री उपलब्ध कराई जाए.
इब्न बतूता ने इस बात को अपनी किताब में दर्ज करते हुए लिखा है, ''सामान्य समय में भी सुल्तान ने दिल्ली के लोगों के लिए सार्वजनिक रसोइयाँ खुलवाईं जिनमें रोज़ कई हज़ार लोगों को खाना खिलाया जाता था. सुल्तान ने बीमारों के लिए अस्पताल और विधवाओं व अनाथों के लिए संरक्षण गृह भी खुलवाए.''
धर्म के मामलों में मोहम्मद बिन तुग़लक़ के विचारों में कई विरोधाभास थे. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि उसके शासन में नमाज़ न पढ़ने वालों के साथ बहुत सख़्ती से व्यवहार किया जाता था.
लेकिन समकालीन इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी और अब्दुल मलिक इसामी का मानना है कि सुल्तान मोहम्मद एक ग़ैर-धार्मिक शख़्स था.
बरनी के मुताबिक़, "उन्होंने सुल्तान के दरबारी होते हुए भी उसके मुँह पर कह दिया था कि जिस तरह वह अपने विरोधियों से पेश आ रहे हैं, इस्लामी परंपराओं में उसको कोई मान्यता नहीं दी गई है."
इतिहासकार इसामी ने इससे एक क़दम आगे बढ़ते हुए मोहम्मद को "काफ़िर" की संज्ञा देते हुए कहा कि आपको हमेशा नास्तिकों के साथ खड़ा देखा गया है.
दरअसल मोहम्मद बिन तुग़लक़ की जिस आदत ने तत्कालीन मुस्लिम धर्मगुरुओं को आक्रोशित किया था, वह था, "उसका योगियों और साधुओं को संरक्षण देना."
अब्राहम इराली ने भी लिखा है, "अति हिंसक प्रवृत्ति का होने के बावजूद मोहम्मद एक जैन साधु जीनाप्रभा सूरी का मुरीद था. इस बात के कई उदाहरण मिलते हैं कि मोहम्मद को दूसरे धर्मों के बारे में जानने की उत्सुकता थी. इसकी वजह ये थी कि उसकी सोच और सांस्कृतिक रुचियाँ व्यापक थीं.''
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तक़रीबन सभी इतिहासकार इस बात से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं कि अपनी राजधानी को दिल्ली से समेट कर दौलताबाद (महाराष्ट्र के देवगिरि) ले जाना, मोहम्मद बिन तुग़लक़ का सबसे विवादास्पद फ़ैसला था.
सुल्तान की समझ में यह एक बुद्धिमानी भरा फ़ैसला था जिसे कामयाब होना चाहिए था लेकिन ये क़दम कामयाब नहीं हो सका.
बरनी लिखते हैं, "एकाएक और बिना किसी सलाह के लिए गए इस फ़ैसले के फ़ायदे-नुक़सान नहीं सोचे गए थे क्योंकि ये सुल्तान का निजी फ़ैसला था. यह फ़ैसला इसलिए भी नाकामयाब रहा क्योंकि मोहम्मद न सिर्फ़ राजधानी को दौलताबाद (देवगिरि) ले गए बल्कि उन्होंने ज़ोर दिया कि दिल्ली की पूरी आबादी भी उनके साथ वहाँ जाए.'"
कई दिल्लीवालों ने दौलताबाद या देवगिरि जाने से इनकार कर दिया और वे अपने-अपने घरों में छिप गए.
इब्न बतूता के मुताबिक़, "सुल्तान ने पूरे शहर की तलाशी करवाई. जिसमें उसके सिपहसालारों को दिल्ली की सड़कों पर एक अपंग और एक अंधा व्यक्ति मिला. उन दोनों को सुल्तान के सामने पेश किया गया."
उन्होंने आगे लिखा, "सुल्तान ने आदेश दिया कि अपंग व्यक्ति को तोप के मुँह पर बाँधकर उड़ा दिया जाए और अंधे व्यक्ति को दिल्ली से देवगिरि तक के 40 दिनों के रास्ते पर घसीटते हुए ले जाया जाए. सड़क पर उस व्यक्ति के टुकड़े होते चले गए और देवगिरि उसकी सिर्फ़ टाँग ही पहुंच सकी."
यह ख़बर पाते ही छिपे हुए गिने-चुने लोगों ने भी दिल्ली छोड़ दी और दिल्ली पूरी तरह से उजड़ गई. इतिहासकार लिखते हैं कि सहमे हुए लोगों ने अपना फ़र्नीचर और सामान तक ले जाने की ज़हमत नहीं की.

लेकिन राजधानी को देवगिरि ले जाने के फ़ैसले से दिल्ली की बर्बादी की शुरुआत हो चुकी थी.
बरानी ने लिखा, "एक ज़माने में दिल्ली इतनी समृद्ध थी कि उसकी तुलना बग़दाद और काहिरा से होती थी. लेकिन यह शहर इस तरह से तबाह हुआ कि यहाँ के भवनों में एक बिल्ली और कुत्ता भी रहने के लिए नहीं बचा. कई पीढ़ियों से दिल्ली में रह रहे लोगों का दिल टूट गया. कई लोग तो देवगिरि जाने के रास्ते में ही मर गए. और जो देवगिरि पहुंचे भी वे अपने शहर से बाहर रहने का दुख बर्दाश्त नहीं कर सके.'"
आख़िरकार मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने देवगिरि आए लोगों को दिल्ली वापस लौटने की इजाज़त दे दी.
उसे अहसास हो गया था कि जिस तरह उसे दिल्ली से दक्षिण पर नियंत्रण करने में दिक़्क़त हो रही थी, उसी तरह वह देवगिरि से उत्तर पर नियंत्रण नहीं रख सकता था.
बहुत से लोग ख़ुशी-ख़ुशी दिल्ली लौटे जबकि कुछ लोगों ने अपने परिवार के साथ देवगिरि में ही रहने का फ़ैसला किया. कई जानकारों का मत है कि राजधानी के बहुत से लोगों के दिल्ली लौटने के बावजूद दिल्ली अपनी पुरानी रौनक नहीं पा सकी.
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मोहम्मद बिन तुग़लक़ के साँकेतिक मुद्रा चलाने के फ़ैसले पर भी ख़ासा विवाद उठ खड़ा हुआ था.
चूँकि 14वीं शताब्दी में दुनिया में चाँदी की कमी हो गई थी तो सुल्तान ने चाँदी के टंका सिक्कों की जगह ताँबे के सिक्के चलवा दिए.
दरअसल, मोहम्मद को साँकेतिक मुद्रा चलाने की सीख चीन और ईरान से मिली जहाँ उस समय इसका चलन था.
लेकिन इस नीति को सफल बनाने के लिए मोहम्मद के पास न तो प्रशासनिक इच्छाशक्ति थी और न ही इसे पूरी तरह से अमल करने के लिए प्रशिक्षित लोग.
प्रोफ़ेसर सतीश चंद्रा अपनी क़िताब मेडिवल इंडिया में लिखते हैं, "नतीजा ये हुआ कि जल्द ही नक़ली सिक्के बाज़ार में आ गए और लोग हर लेन-देन में सिक्के की क़ीमत के अनुरूप सिक्के देने लगे, न कि उस पर गढ़े मूल्य के आधार पर. हर एक व्यक्ति सरकार को ताँबे के नक़ली सिक्कों में अपनी देनदारी देने लगा."
जब सुल्तान को लगा कि उसकी साँकेतिक मुद्रा की परियोजना असफल हो गई है तो उसने इसका चलन बंद करने का फ़ैसला कर लिया.
उसने ऐलान करवाया कि जिस किसी के पास ताँबे के सिक्के हैं, वे उन्हें ख़ज़ाने में जमा कर उनके बदले में सोने और चाँदी के सिक्के ले सकते हैं.
ज़ियाउद्दीन बरनी के अनुसार, "ख़ज़ाने में इतने ज़्यादा ताँबे के सिक्के पहुँच गए कि उनका एक तरह से पहाड़ सा बन गया. इस असफलता से सुल्तान की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का लगा और इसने मोहम्मद बिन तुग़लक़ को अपने लोगों के प्रति और कठोर बना दिया."
मशहूर इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद ने अपनी किताब "ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ़ मुस्लिम रूल इन इंडिया" में लिखा, "राज्य की जितनी बड़ी आवश्यकता रही हो, साधारण जनता के लिए ताँबा-ताँबा ही था. जनता सांकेतिक मुद्रा के लेन-देन की प्रक्रिया समझ न सकी. सुल्तान ने इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि भारत के लोग रूढ़िवादी होते हैं और परिवर्तन से सशंकित रहते हैं, वह भी उस परिस्थिति में जब शासक भारतीय मूल का न हो.''
इतिहास से यही पता चलता है कि मोहम्मद बिन तुग़लक़ को किसी पर विश्वास नहीं था. इसलिए वह विद्रोह को कुचलने के लिए देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्से जाता रहता था और इस कवायद ने उसकी सेना को बुरी तरह से थका दिया था.
सन 1345 में मोहम्मद बिन तुग़लक़ गुजरात में विद्रोहियों को कुचलने के लिए दिल्ली से बाहर निकला और फिर उसकी दिल्ली वापसी कभी नहीं हुई.
इस अभियान के दौरान सुल्तान की सेना में प्लेग की महामारी फैल गई थी. गुजरात में सुल्तान ने विद्रोही मोहम्मद ताग़ी को हरा तो दिया लेकिन वह उसे पकड़ नहीं पाया क्योंकि विद्रोही सिंध की तरफ़ भाग गए थे.
इस दौरान मोहम्मद को तेज़ बुख़ार आ गया लेकिन इतिहासकारों ने लिखा है, "ठीक होने के बाद वह ताग़ी के पीछे सिंध गया जहां उसने सिंध नदी भी पार की लेकिन इस बीच उसका बुख़ार फिर वापस लौट आया."
20 मार्च, 1351 को मोहम्मद बिन तुग़लक़ ने सिंधु नदी के किनारे चट्टा से क़रीब 45 किलोमीटर दूर अपनी अंतिम साँस ली.
उस समय के इतिहासकार अब्दुल क़ादिर बदायूँनी ने लिखा, ''न तो सुल्तान को अपनी जनता से उतना प्यार और सम्मान मिल सका और न ही जनता उसे ठीक से समझ सकी. बस सुल्तान को उसकी प्रजा से और प्रजा को सुल्तान से मुक्ति मिल गई."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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