देवघर, 30 सितंबर . विजयादशमी के अवसर पर पूरे India में रावण दहन की परंपरा बेहद प्रचलित है. विजयादशमी पर रावण का पुतला जलाकर बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक दर्शाया जाता है. लेकिन, Jharkhand के देवघर शहर में यह परंपरा अलग है. यहां रावण दहन नहीं होता.
देवघर की पावन धरती से रावण का गहरा संबंध है. कहा जाता है कि देवघर में स्थित बाबा बैद्यनाथ धाम, जो बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है, की स्थापना से रावण की गहरी तपस्या और भगवान शिव के प्रति उनकी असीम भक्ति की कहानी जुड़ी हुई है. इसे रावणेश्वर ज्योतिर्लिंग के नाम से भी जाना जाता है.
मान्यता है कि लंकापति रावण ने कड़ी तपस्या से भगवान शिव को प्रसन्न किया और उनसे आत्मलिंग (शिवलिंग) लंका ले जाने का वरदान मांगा. लेकिन, एक शर्त थी कि अगर रावण ने रास्ते में कहीं भी शिवलिंग को रखा तो वह वहीं स्थापित हो जाएगा. शिवलिंग लेकर जाते समय रावण को लघु शंका लगी और उसने चरवाहे का रूप धारण किए भगवान विष्णु से शिवलिंग कुछ देर के लिए पकड़ने का अनुरोध किया, लेकिन रावण के लौटने से पहले ही उन्होंने शिवलिंग को नीचे रख दिया, जिससे वह उसी स्थान पर स्थापित हो गया.
यही कारण है कि देवघर के लोग रावण को राक्षसराज की बजाय भगवान शिव का अनन्य भक्त मानते हैं और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं. उनके द्वारा की गई तपस्या और शिव की उपासना का वर्णन पुराणों में मिलता है. इसलिए विजयादशमी के दिन जब पूरे देश में रावण दहन होता है तब देवघर में रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता.
इसके अलावा, Madhya Pradesh के मंदसौर, उत्तर प्रदेश के बिसरख और Maharashtra के अमरावती के गढ़चिरौली में कुछ जगहों पर भी विजयादशमी के दिन रावण दहन नहीं किया जाता, बल्कि रावण की पूजा की जाती है. खासकर, गढ़चिरौली में आदिवासी समुदाय के लोग रावण को अपने कुल देवता के रूप में पूजते हैं.
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पीआईएम/एबीएम
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