सिर्फ 26 महीने का था शंकर, जब 1998 में जिम्बाब्वे से उड़ान भरकर भारत आया। पूर्व प्रेजिडेंट डॉ. शंकर दयाल शर्मा को डिप्लोमैटिक गिफ्ट के तौर पर मिले इस छोटे हाथी को नाम भी उन्हीं का दिया गया। दिल्ली जू के बाड़े में कदम रखते समय उसके साथ उसकी साथी मादा हाथी बोंबाई भी थी। लेकिन 2001 में बोंबाई के गुजर जाने के बाद शंकर की दुनिया वीरान हो गई।
बाड़े में घुटती जिंदगी । अफ्रीकी हाथी खुले मैदानों में 20 से 50 किलोमीटर रोज चलना पसंद करते हैं। लेकिन शंकर 4,930 वर्ग मीटर की कंक्रीट की दुनिया में बंधा था। उसके पांव जंजीरों में जकड़े गए और अकेलापन उसके भीतर घुसकर बैठ गया। एनिमल राइट्स एक्टिविस्टों ने बार-बार चेताया। लेकिन शंकर के लिए कोई साथी नहीं मिल सका। वह अकेले बाड़े में घुटता रहा।
खाना छोड़ दिया । आखिर 17 सितंबर को उसने खाना छोड़ दिया। डॉक्टरों ने उसे बचाने की पूरी कोशिश की, लेकिन 29 साल की उम्र में शंकर की सांसें थम गईं। हालांकि अफ्रीकी हाथियों की औसत उम्र 70 साल होती है। उस समय उसका वजन करीब 4,000 किलो था। 1998 में जब उसने पहली बार भारत की मिट्टी छुई थी, तो वजन केवल 450 किलो था।
रैंबो की उदासी । यही कहानी देश के इकलौते अफ्रीकी हाथी रैंबो की भी है, जो अब 33 साल का है और मैसूर, कर्नाटक के जू में बिल्कुल अकेला है। उसके माता-पिता टिंबू और जॉम्बी जर्मनी से मैसूर लाए गए थे। आज उसके पास कोई साथी नहीं है। अफ्रीकी हथिनी उसके लिए नहीं लाई जा रही।
फिशन-फ्यूजन समाज । जानी-मानी एलिफैंट रिसर्चर सुपर्णा द्विवेदी बताती हैं कि हाथी बेहद इमोशनल और संवेदनशील प्राणी हैं। उनके कुनबे में दादी, मां, चाची, कजन और भाई-बहन होते हैं, कभी-कभी इनके कुनबे में सदस्यों की संख्या 60 तक भी पहुंच जाती है। कभी छोटे-छोटे ग्रुप में बंटते हैं, फिर मिलते हैं। मिलते समय सूंडें लिपटती हैं। छूकर, सहलाकर और पास रहकर ही वे अपना प्यार जताते हैं। अकेलापन उन्हें भीतर तक तोड़ देता है।
जू की हकीकत । PETA इंडिया की डायरेक्टर खुशबू गुप्ता कहती हैं कि देश भर के जू का दौरा करते समय हमने हाथियों की हकीकत देखी। वे कंक्रीट के फर्श पर बंधे रहते हैं। बार-बार एक ही जगह चलना, सिर हिलाना, सूंड झूलाना- यह सब उनके भीतर की बेचैनी और दर्द की कहानी बयान करता है।
CZA की गाइडलाइंस । साल 2009 में CZA (सेंट्रल जू अथॉरिटी) ने साफ निर्देश दिया था कि अब चिड़ियाघरों में हाथियों को नहीं रखा जाएगा। पर यह नीति कागजों तक ही सीमित रही। सुपर्णा कहती हैं कि सिविल सोसाइटी को आगे आना होगा, ताकि नीतियों का पालन हो और जू से हाथियों को छुटकारा मिल सके।
बाड़े में घुटती जिंदगी । अफ्रीकी हाथी खुले मैदानों में 20 से 50 किलोमीटर रोज चलना पसंद करते हैं। लेकिन शंकर 4,930 वर्ग मीटर की कंक्रीट की दुनिया में बंधा था। उसके पांव जंजीरों में जकड़े गए और अकेलापन उसके भीतर घुसकर बैठ गया। एनिमल राइट्स एक्टिविस्टों ने बार-बार चेताया। लेकिन शंकर के लिए कोई साथी नहीं मिल सका। वह अकेले बाड़े में घुटता रहा।
खाना छोड़ दिया । आखिर 17 सितंबर को उसने खाना छोड़ दिया। डॉक्टरों ने उसे बचाने की पूरी कोशिश की, लेकिन 29 साल की उम्र में शंकर की सांसें थम गईं। हालांकि अफ्रीकी हाथियों की औसत उम्र 70 साल होती है। उस समय उसका वजन करीब 4,000 किलो था। 1998 में जब उसने पहली बार भारत की मिट्टी छुई थी, तो वजन केवल 450 किलो था।
रैंबो की उदासी । यही कहानी देश के इकलौते अफ्रीकी हाथी रैंबो की भी है, जो अब 33 साल का है और मैसूर, कर्नाटक के जू में बिल्कुल अकेला है। उसके माता-पिता टिंबू और जॉम्बी जर्मनी से मैसूर लाए गए थे। आज उसके पास कोई साथी नहीं है। अफ्रीकी हथिनी उसके लिए नहीं लाई जा रही।
फिशन-फ्यूजन समाज । जानी-मानी एलिफैंट रिसर्चर सुपर्णा द्विवेदी बताती हैं कि हाथी बेहद इमोशनल और संवेदनशील प्राणी हैं। उनके कुनबे में दादी, मां, चाची, कजन और भाई-बहन होते हैं, कभी-कभी इनके कुनबे में सदस्यों की संख्या 60 तक भी पहुंच जाती है। कभी छोटे-छोटे ग्रुप में बंटते हैं, फिर मिलते हैं। मिलते समय सूंडें लिपटती हैं। छूकर, सहलाकर और पास रहकर ही वे अपना प्यार जताते हैं। अकेलापन उन्हें भीतर तक तोड़ देता है।
जू की हकीकत । PETA इंडिया की डायरेक्टर खुशबू गुप्ता कहती हैं कि देश भर के जू का दौरा करते समय हमने हाथियों की हकीकत देखी। वे कंक्रीट के फर्श पर बंधे रहते हैं। बार-बार एक ही जगह चलना, सिर हिलाना, सूंड झूलाना- यह सब उनके भीतर की बेचैनी और दर्द की कहानी बयान करता है।
CZA की गाइडलाइंस । साल 2009 में CZA (सेंट्रल जू अथॉरिटी) ने साफ निर्देश दिया था कि अब चिड़ियाघरों में हाथियों को नहीं रखा जाएगा। पर यह नीति कागजों तक ही सीमित रही। सुपर्णा कहती हैं कि सिविल सोसाइटी को आगे आना होगा, ताकि नीतियों का पालन हो और जू से हाथियों को छुटकारा मिल सके।
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