नई दिल्ली: भारत की कृषि उपज चीन से लगभग आधी है। यह एक बड़ा अंतर है जिसे अर्थशास्त्री देवेश कपूर 'बहुत ही अजीब' बताते हैं। ऐसा तब है जब भारत ने राजनीतिक रूप से काफी तरक्की की है। दशकों से सुधार भी किए हैं। कपूर ने कैम्ब्रिज पॉडकास्ट पर अपनी नई किताब पर चर्चा करते हुए यह बात कही। उन्होंने कहा कि भारत की कृषि उत्पादकता न बढ़ पाना उसके विकास की सबसे बड़ी पहेलियों में से एक है। कपूर ने कहा, 'भारत में ज्यादातर लोग गांवों में रहते थे। ज्यादातर भारतीयों के लिए खेती ही अर्थव्यवस्था का मुख्य हिस्सा थी। कोई भी बड़ा देश बिना मजबूत कृषि क्षेत्र के विकसित नहीं हुआ है।'
देवेश कपूर ने बताया कि भारत में कृषि क्षेत्र में दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली, जमीन से जुड़ी पुरानी व्यवस्था। जमीन सुधार एक बड़ी चुनौती थी। दुनिया में भूमि सुधार सिर्फ तानाशाही शासनों में ही हुए हैं। लोकतंत्र में यह बहुत मुश्किल रहा है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के शासनकाल में राज्य स्तर के कांग्रेस नेताओं का बड़ा हिस्सा जमीन मालिकों के उच्च वर्ग से था। वे भूमि सुधारों को रोकने की कोशिश कर रहे थे।
दूसरी चुनौती भारत की संघीय व्यवस्था से आई। कृषि राज्य का विषय है। शुरुआती दशकों में केंद्र सरकार की भूमिका ज्यादा थी। कपूर ने कहा कि यह दिलचस्प है कि जब भारत ने हरित क्रांति के साथ अपनी कृषि नीतियों में बदलाव किया और खासकर पिछले 30 सालों में तो कृषि को बेहतर बनाने के जो तरीके अपनाए गए, वे मुख्य रूप से सब्सिडी पर आधारित थे। हरित क्रांति की शुरुआत में जो लक्ष्य था, यानी उपज बढ़ाना, वह पीछे छूट गया।
भारत की उपज चीन से बहुत कम
दिग्गज अर्थशास्त्री ने कहा, 'आज भी कई मुख्य फसलों में भारत की उपज चीन से काफी कम है। कुछ मामलों में तो आधी है। यह बहुत ही अजीब बात है। 1970 के दशक के बाद जब क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता में आईं तो उनका आधार ग्रामीण भारत में ज्यादा था। फिर भी उपज बढ़ाने जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखी।'
जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में साउथ एशिया स्टडीज के प्रोफेसर कपूर ने आगे कहा कि भारतीय कृषि में जो भी विकास हुआ है, वह काफी हद तक राज्य के नियंत्रण से बाहर रहा है। उन्होंने बताया, 'पिछले 25 सालों में भारतीय कृषि ने ठीक-ठाक प्रदर्शन किया है। लेकिन, यह बागवानी, पशुपालन - जैसे दूध, अंडे, मांस, फल और सब्जियां - जैसे क्षेत्रों में हुआ है। इन क्षेत्रों में सरकार की भागीदारी बहुत कम है। वहीं, जिन क्षेत्रों में सरकार सब्सिडी, मूल्य नियंत्रण और खरीद पर बहुत जोर देती है, यानी अनाज, वहां विकास बहुत धीमा रहा है।' उन्होंने कहा कि राज्यों में जो प्रतिनिधि आते हैं, वे ज्यादातर ग्रामीण इलाकों से होते हैं और कृषि राज्य का विषय है। वे इस क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकते थे। लेकिन, उनमें कल्पना की कमी थी। उनके पास सीमित साधन थे।
भारत ने कहां की गलती?
देवेश कपूर ने अपनी नई किताब 'ए सिक्स्थ ऑफ ह्यूमैनिटी: इंडिपेंडेंट इंडियाज डेवलपमेंट ओडिसी' पर चर्चा करते हुए ये बातें बोलीं। वहीं, किताब के सह-लेखक अरविंद सुब्रमण्यन ने कहा कि भारत का कृषि की उपेक्षा करना एक वैचारिक गलती भी थी। यह शुरुआती आर्थिक योजना के समय से जुड़ा था। उन्होंने कहा, 'यह सच है कि उस समय की सोच का असर कई फैसलों पर पड़ा। भारी औद्योगीकरण पर जोर देना उस समय की एक बड़ी सोच थी। अगर आप एक क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देंगे तो दूसरे क्षेत्र की उपेक्षा होगी, खासकर संसाधनों के मामले में।'
सुब्रमण्यन ने आगे कहा कि भारत की आर्थिक सोच गलत मॉडलों से प्रभावित थी। उन्होंने कहा, 'इसमें एक वैचारिक पहलू भी था। हमने रूस, चीन और पश्चिम को मॉडल के तौर पर देखा। हम लुईस मॉडल से भी बहुत प्रभावित थे। जैसा कि आप जानते हैं, महालनोबिस रूस और रूसी मॉडल से बहुत प्रभावित थे। इसे तो फेल्डमैन-महालनोबिस मॉडल भी कहा जाता है। इसलिए वैचारिक रूप से हमने पश्चिम, रूस, चीन को देखा। लेकिन, हमने कभी जापान, कोरिया या ताइवान जैसे देशों की ओर नहीं देखा, जहां उन्होंने भूमि सुधार और कृषि उत्पादकता पर वास्तव में जोर दिया था।'
सब्सिडी का नहीं होता लंबे समय में फायदा
कपूर ने बताया कि भारत में कृषि सुधारों में देरी की एक बड़ी वजह यह भी थी कि भूमि सुधारों को लागू करना बहुत मुश्किल था। उन्होंने कहा, 'भूमि सुधारों को लागू करने में कई तरह की दिक्कतें आईं। जमीन के मालिकाना हक को लेकर बहुत सारे मामले थे। इसके अलावा, जो लोग जमीन के मालिक थे, वे अक्सर राजनीतिक रूप से प्रभावशाली होते थे। ऐसे में भूमि सुधारों को लागू करना एक जटिल प्रक्रिया बन गई।'
उन्होंने यह भी कहा कि भारत में कृषि को लेकर जो नीतियां बनीं, वे अक्सर राजनीतिक फायदे के लिए बनाई गईं। सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) जैसी चीजें किसानों को सीधे तौर पर फायदा पहुंचाती हैं। लेकिन, इनसे उत्पादकता बढ़ाने में मदद नहीं मिलती। कपूर ने कहा, 'सरकारें किसानों को खुश रखने के लिए ऐसी नीतियां बनाती हैं। लेकिन, इनसे कृषि क्षेत्र का दीर्घकालिक विकास नहीं होता।'
सुब्रमण्यन ने इस बात पर जोर दिया कि भारत को अपनी आर्थिक योजनाओं में कृषि को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। उन्होंने कहा, 'अगर भारत ने जापान, कोरिया या ताइवान जैसे देशों से सीखा होता तो आज हमारी कृषि की स्थिति बहुत बेहतर होती। इन देशों ने कृषि को मजबूत बनाकर ही अपनी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया।'
कपूर ने यह भी बताया कि भारत में कृषि के क्षेत्र में इनोवेशन की कमी रही है। नई तकनीकों को अपनाने में किसानों को हिचकिचाहट होती है। इसके अलावा, कृषि अनुसंधान और विकास (R&D) पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। उन्होंने कहा, 'हमें कृषि में नई तकनीकों को लाने और किसानों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है ताकि वे अपनी उपज बढ़ा सकें।'
देवेश कपूर ने बताया कि भारत में कृषि क्षेत्र में दो बड़ी चुनौतियां थीं। पहली, जमीन से जुड़ी पुरानी व्यवस्था। जमीन सुधार एक बड़ी चुनौती थी। दुनिया में भूमि सुधार सिर्फ तानाशाही शासनों में ही हुए हैं। लोकतंत्र में यह बहुत मुश्किल रहा है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के शासनकाल में राज्य स्तर के कांग्रेस नेताओं का बड़ा हिस्सा जमीन मालिकों के उच्च वर्ग से था। वे भूमि सुधारों को रोकने की कोशिश कर रहे थे।
दूसरी चुनौती भारत की संघीय व्यवस्था से आई। कृषि राज्य का विषय है। शुरुआती दशकों में केंद्र सरकार की भूमिका ज्यादा थी। कपूर ने कहा कि यह दिलचस्प है कि जब भारत ने हरित क्रांति के साथ अपनी कृषि नीतियों में बदलाव किया और खासकर पिछले 30 सालों में तो कृषि को बेहतर बनाने के जो तरीके अपनाए गए, वे मुख्य रूप से सब्सिडी पर आधारित थे। हरित क्रांति की शुरुआत में जो लक्ष्य था, यानी उपज बढ़ाना, वह पीछे छूट गया।
भारत की उपज चीन से बहुत कम
दिग्गज अर्थशास्त्री ने कहा, 'आज भी कई मुख्य फसलों में भारत की उपज चीन से काफी कम है। कुछ मामलों में तो आधी है। यह बहुत ही अजीब बात है। 1970 के दशक के बाद जब क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता में आईं तो उनका आधार ग्रामीण भारत में ज्यादा था। फिर भी उपज बढ़ाने जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र में उनकी कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखी।'
जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी में साउथ एशिया स्टडीज के प्रोफेसर कपूर ने आगे कहा कि भारतीय कृषि में जो भी विकास हुआ है, वह काफी हद तक राज्य के नियंत्रण से बाहर रहा है। उन्होंने बताया, 'पिछले 25 सालों में भारतीय कृषि ने ठीक-ठाक प्रदर्शन किया है। लेकिन, यह बागवानी, पशुपालन - जैसे दूध, अंडे, मांस, फल और सब्जियां - जैसे क्षेत्रों में हुआ है। इन क्षेत्रों में सरकार की भागीदारी बहुत कम है। वहीं, जिन क्षेत्रों में सरकार सब्सिडी, मूल्य नियंत्रण और खरीद पर बहुत जोर देती है, यानी अनाज, वहां विकास बहुत धीमा रहा है।' उन्होंने कहा कि राज्यों में जो प्रतिनिधि आते हैं, वे ज्यादातर ग्रामीण इलाकों से होते हैं और कृषि राज्य का विषय है। वे इस क्षेत्र में बहुत कुछ कर सकते थे। लेकिन, उनमें कल्पना की कमी थी। उनके पास सीमित साधन थे।
भारत ने कहां की गलती?
देवेश कपूर ने अपनी नई किताब 'ए सिक्स्थ ऑफ ह्यूमैनिटी: इंडिपेंडेंट इंडियाज डेवलपमेंट ओडिसी' पर चर्चा करते हुए ये बातें बोलीं। वहीं, किताब के सह-लेखक अरविंद सुब्रमण्यन ने कहा कि भारत का कृषि की उपेक्षा करना एक वैचारिक गलती भी थी। यह शुरुआती आर्थिक योजना के समय से जुड़ा था। उन्होंने कहा, 'यह सच है कि उस समय की सोच का असर कई फैसलों पर पड़ा। भारी औद्योगीकरण पर जोर देना उस समय की एक बड़ी सोच थी। अगर आप एक क्षेत्र पर ज्यादा ध्यान देंगे तो दूसरे क्षेत्र की उपेक्षा होगी, खासकर संसाधनों के मामले में।'
सुब्रमण्यन ने आगे कहा कि भारत की आर्थिक सोच गलत मॉडलों से प्रभावित थी। उन्होंने कहा, 'इसमें एक वैचारिक पहलू भी था। हमने रूस, चीन और पश्चिम को मॉडल के तौर पर देखा। हम लुईस मॉडल से भी बहुत प्रभावित थे। जैसा कि आप जानते हैं, महालनोबिस रूस और रूसी मॉडल से बहुत प्रभावित थे। इसे तो फेल्डमैन-महालनोबिस मॉडल भी कहा जाता है। इसलिए वैचारिक रूप से हमने पश्चिम, रूस, चीन को देखा। लेकिन, हमने कभी जापान, कोरिया या ताइवान जैसे देशों की ओर नहीं देखा, जहां उन्होंने भूमि सुधार और कृषि उत्पादकता पर वास्तव में जोर दिया था।'
सब्सिडी का नहीं होता लंबे समय में फायदा
कपूर ने बताया कि भारत में कृषि सुधारों में देरी की एक बड़ी वजह यह भी थी कि भूमि सुधारों को लागू करना बहुत मुश्किल था। उन्होंने कहा, 'भूमि सुधारों को लागू करने में कई तरह की दिक्कतें आईं। जमीन के मालिकाना हक को लेकर बहुत सारे मामले थे। इसके अलावा, जो लोग जमीन के मालिक थे, वे अक्सर राजनीतिक रूप से प्रभावशाली होते थे। ऐसे में भूमि सुधारों को लागू करना एक जटिल प्रक्रिया बन गई।'
उन्होंने यह भी कहा कि भारत में कृषि को लेकर जो नीतियां बनीं, वे अक्सर राजनीतिक फायदे के लिए बनाई गईं। सब्सिडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) जैसी चीजें किसानों को सीधे तौर पर फायदा पहुंचाती हैं। लेकिन, इनसे उत्पादकता बढ़ाने में मदद नहीं मिलती। कपूर ने कहा, 'सरकारें किसानों को खुश रखने के लिए ऐसी नीतियां बनाती हैं। लेकिन, इनसे कृषि क्षेत्र का दीर्घकालिक विकास नहीं होता।'
सुब्रमण्यन ने इस बात पर जोर दिया कि भारत को अपनी आर्थिक योजनाओं में कृषि को प्राथमिकता देनी चाहिए थी। उन्होंने कहा, 'अगर भारत ने जापान, कोरिया या ताइवान जैसे देशों से सीखा होता तो आज हमारी कृषि की स्थिति बहुत बेहतर होती। इन देशों ने कृषि को मजबूत बनाकर ही अपनी अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया।'
कपूर ने यह भी बताया कि भारत में कृषि के क्षेत्र में इनोवेशन की कमी रही है। नई तकनीकों को अपनाने में किसानों को हिचकिचाहट होती है। इसके अलावा, कृषि अनुसंधान और विकास (R&D) पर भी पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। उन्होंने कहा, 'हमें कृषि में नई तकनीकों को लाने और किसानों को प्रशिक्षित करने की जरूरत है ताकि वे अपनी उपज बढ़ा सकें।'
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