जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में पर्यटकों पर 22 अप्रैल को हुए हमले में 26 लोगों की मौत हो गई थी. बाद में भारत ने छह-सात मई की दरमियानी रात पाकिस्तान प्रशासित कश्मीर और पाकिस्तान में कई जगहों पर हमले किए.
इसके बाद पाकिस्तान ने भारत के कई इलाक़ों पर हमले कर दिए. दोनों देशों के बीच कई दिनों तक संघर्ष चला. फिर संघर्षविराम का एलान हुआ.
इस दौरान तथ्यपरक, विश्वसनीय और संघर्ष के असर की ज़मीनी ख़बर पहुँचाने के लिए बीबीसी के संवाददाता अलग-अलग क्षेत्रों में गए.
बीबीसी के इन संवाददाताओं ने संघर्ष के दौरान कैसे काम किया और इस दौरान उनके क्या अनुभव रहे?
चेतावनी: इस लेख के कुछ विवरण आपको विचलित कर सकते हैं.
दिव्या आर्यबीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य, जम्मू से वीडियो जर्नलिस्ट शाद मिद्हत के साथ रिपोर्ट कर रही थीं.
सच कहूँ तो मैं बहादुर हूँ, बेख़ौफ़ नहीं.
डर तो था. वह दिल के किसी कोने में दुबक कर बैठ गया था.
वह कहते हैं न, इंसानी फ़ितरत ख़तरे से दूर रहने की होती है लेकिन पत्रकार तो ख़तरे की ओर भागता है.
लेकिन डर इससे बड़ा है.
जब अपने घर के टूटे मंदिर को देखकर तान्या की आँखें भर आती हैं और सीमेंट के टुकड़ों, राख और मिट्टी के बीच देवी माँ की मूर्ति उठाकर, सीने से लगाकर, वह मेरी ओर मुड़ती हैं… तब उनके इस निजी पल को कैमरे में क़ैद करने का डर.
मेरे सवालों के ज़रिए वह दर्द बँटे. दुनिया तक पहुँचे. जंग की इंसानी क़ीमत की कहानी कहे.
जब हमले में मारे गए ज़ाकिर हुसैन की मौसी बताती हैं कि धमाका इतना ज़ोर का था कि उनके भाँजे की कमर के नीचे का हिस्सा अलग होकर दूर गिर गया. तब पहले ये समझना कि वह ग़म में ये कह रही हैं या क्या वाक़ई ये तथ्य है.
एम्बुलेंस के पास जा कर सही जानकारी लेना. इस सबके बाद यह तय करना कि देखने-पढ़ने वालों के लिए यह जानना कितना ज़रूरी है. क्या यह जानकारी डर, बौखलाहट और ग़ुस्से को बढ़ाएगी?
जब मारिया ख़ान अपनी बहन के बयान करते हुए धारा प्रवाह बोलती जाती हैं… उनके आँसू लगातार बहते जाते हैं और फिर अचानक रुक कर मुझसे पूछती हैं, "और कुछ?"
तब दिल के कोने में दुबक कर बैठा डर हलक तक आ जाता है. हिम्मत कर दबी आवाज़ में मैं उनसे उनकी दीदी-जीजा और बच्चों की तस्वीर माँगती हूँ.
कोई रक्षा जैकेट काम नहीं आती.
अपनी टूटी-बिखरी ज़िंदगी को समेटते इन लोगों के विश्वास से बल मिलता है. फिर एक बार डर को फटकार कर मैं निकल पड़ती हूँ.
वीडियो जर्नलिस्ट शाद मिद्हत बीबीसी संवाददाता दिव्या आर्य के साथ जम्मू से रिपोर्ट कर रहे थे.
हम सात अप्रैल की देर रात जम्मू पहुँचे. अगले दिन राजौरी होते हुए श्रीनगर के लिए रवाना हुए. राजौरी पहुँचते-पहुँचते हमें शाम हो गई. फिर हमें आगे नहीं जाने दिया गया. हम वहीं एक होटल में रुक गए.
जब रात के वक्त बीबीसी टीवी का लाइव चल रहा था, तभी समाचार आने लगे कि जम्मू और बाकी जगहों पर ड्रोन और मिसाइल हमले हो रहे हैं. साथ ही बॉर्डर पर शेलिंग हो रही है.
हमारी एक टीम बॉर्डर से सटे शहर पुंछ में थी. हमारी उनसे बात हुई. पता चला कि गोलाबारी काफी तेज़ हो गई है. तभी थोड़ी देर बाद जिस होटल में हम रुके थे, वहाँ मौजूद लोग नीचे की तरफ़ भागे. हम भी अपने कमरे की लाइट बंद कर होटल की लॉबी में भागे.
गोलाबारी की आवाज़ें आ रही थीं. हमने बाहर ड्रोन उड़ते देखे. पूरे राजौरी शहर में ब्लैकआउट कर दिया गया. मुझे घबराहट होने लगी कि आज की रात न जाने क्या होगा?
ऑफिस से फ़ोन आने लगे. दोस्तों के मैसेज आने लगे. कुछ देर बाद मैंने अपनी पत्नी को फ़ोन किया और बताया कि हम सुरक्षित हैं. हम सबके लिए दुआ करे. बात करते-करते उसकी आवाज़ बदल गई. वह भावुक हो गई.
हमारे साथ होटल में 20 पत्रकार मौजूद थे. वे सभी अपना काम करने के साथ-साथ, अपने परिवार वालों से फ़ोन पर बात कर रहे थे.
हम पूरी रात जागते रहे. अपना फ़ोन चेक करते रहे.
किसी तरह पूरी रात निकली. अगली सुबह हम जम्मू आए. रात में जम्मू पर हमला हो गया. अगली सुबह हमने जम्मू शहर में तबाही का मंज़र देखा.
इस संघर्ष को कवर करने के दौरान मुझे यही लगा कि जंग चाहे कहीं भी हो लेकिन इसमें सिर्फ़ लोगों की जान जाती है.

बीबीसी संवाददाता माजिद जहांगीर सहयोगी कैमरापर्सन इमरान अली के साथ जम्मू-कश्मीर के सीमावर्ती इलाकों से रिपोर्ट कर रहे थे.
भारत और पाकिस्तान के बीच संघर्ष के दौरान जम्मू-कश्मीर के सीमावर्ती इलाक़ों, आसपास के शहरों और कस्बों से रिपोर्टिंग करना कोई आसान काम नहीं था. यह बेहद चुनौती भरा अनुभव रहा.
कुछ जगहों तक सुरक्षा कारणों से न पहुँच पाना भी अपने आप में एक चुनौती थी. कई बार घंटों सफ़र करने के बाद भी हम कई जगहों तक नहीं पहुँच पाए.
उरी या कुपवाड़ा के जिन भी प्रभावित इलाक़ों में हम रिपोर्ट करने गए तो अकसर लौटते-लौटते देर शाम हो गई. इस दौरान यह डर दिल और ज़ेहन में रहता था कि इन इलाक़ों में कभी भी शेलिंग हो सकती है.
ख़ुद का डर तो था ही, जब तक घर न पहुँचे तब तक घरवाले भी चिंता में कई बार फ़ोन करते रहते थे.
सबसे बड़ी चुनौती थी, 'मिस इनफार्मेशन' से अपने आप को दूर रखते हुए अपने पाठकों-दर्शकों तक सही ख़बरें पहुँचाना.
कोई भी ख़बर सामने आने के बाद उसकी असलियत जानने के लिए दर्जनों लोगों के साथ संपर्क करना या आधिकारिक पुष्टि हासिल करना भी आसान नहीं था.
मैं हर दिन, देर रात सोते वक़्त इस बात का डर लेकर सोया कि सुबह तक पता नहीं हालात कैसे होंगे और हमें किन ख़तरनाक हालात में जा कर रिपोर्टिंग करनी होगी.
बीबीसी संवाददाता जुगल पुरोहित वीडियो जर्नलिस्ट अंतरिक्ष जैन के साथ पठानकोट से रिपोर्ट कर रहे थे
अभी तक हालत यह है कि अगर कहीं ज़ोर से दरवाज़ा बंद हुआ या फिर कहीं कोई भारी चीज़ गिर गई तो तुरंत नज़र आसमान की तरफ़ चली जाती है. लगता है, कहीं ड्रोन से हमला या जवाबी फ़ायरिंग तो नहीं हुई है?
फ़िलहाल हमारी टीम यानी मैं, मेरे साथी अंतरिक्ष जैन और हमारे ड्राइवर पवन झा, पंजाब में भारत-पाकिस्तान की अंतरराष्ट्रीय सीमा के पास पठानकोट शहर और आसपास के इलाक़ों से रिपोर्टिंग कर रहे हैं.
यहाँ हुए हमले से आम नागरिकों का जीवन भी प्रभावित हुआ है.
जब मेरे परिवार के लोगों को पता चला कि मैं यहाँ हूँ तो कई लोगों के कॉल आने लगे. उन सबको मेरी चिंता थी.
एक रात मजबूरी में जब हम गाड़ी की हेडलाइट बंद कर एक जगह से दूसरी जगह जा रहे थे, तब हमारे ऊपर ही कुछ ड्रोन उड़ रहे थे. इन्हें मार गिराया गया. उन धमाकों ने हमें पूरी तरह से हिला दिया.
हमने तुरंत गाड़ी पार्क कर पास की ही एक इमारत में शरण ली. तब वहाँ कोई नहीं था. ब्लैक आउट के चलते सभी घरों की रोशनी बंद थी. कुछ समय बाद जब हमने पुलिस कर्मियों, सिविल डिफेंस के लोगों और साथी पत्रकारों को देखा तो राहत महसूस हुई.
अपनी बात को ख़त्म करने से पहले आपके साथ कुछ शब्द साझा करना चाहूँगा. यह शब्द मेरे नहीं बल्कि पठानकोट में रहने वाले एक रिटायर अधिकारी के हैं-
"पहलगाम में जो हुआ उसे हम कभी नहीं भूल सकते. जिसने वह किया, उसे सज़ा मिलनी ही चाहिए. लेकिन पिछले कुछ दिनों में हमने दो भारत देखे. एक, जो अपने घरों में बैठ कर सोशल मीडिया और टीवी पर दोनों देशों के बीच जो हुआ, उसे एक खेल के रूप में देख रहा था. दूसरा भारत, जो हमारी तरह पठानकोट जैसे इलाक़ों में हर पल इस उम्मीद में बैठा था कि दोनों देशों के बीच बातचीत होगी. शांति होगी और जीवन फिर से पटरी पर लौट पाएगा.
वीडियो जर्नलिस्ट देबिलन रॉय बीबीसी संवाददाता राघवेंद्र राव के साथ पुंछ से रिपोर्ट कर रहे थे.
मैं इस समय पुंछ में हूँ. यहाँ पर भारी गोलाबारी हुई थी. आठ मई की रात गोलाबारी से बचने के लिए हमें एक अस्थाई शेल्टर में रहना पड़ा.
सायरन की आवाज़ और लगातार धमाकों के बीच हम सबके पास अपनी-अपनी कहानियाँ थीं, जिन्हें हमें बताना था. इसलिए हम अपने काम में लगे रहे.
यह इलाक़ा पूरी तरह युद्ध क्षेत्र बन चुका था. शेल के टुकड़े हमारी बाउंड्री और आस-पास के इलाक़ों से टकरा रहे थे. कई बार धमाकों से पहले दो से तीन सेकेंड की सीटी जैसी आवाज़ होती थी.
हर बार जब धमाका होता, लोग बिना कुछ कहे एक-दूसरे की तरफ़ देखते, लेकिन नज़रें शब्दों से कहीं ज़्यादा कह जाती थीं.
इन सबके बीच मैंने भी अपने कुछ क़रीबी लोगों को फ़ोन किया.
जैसे-जैसे रात बढ़ती गई, गोलाबारी भी बढ़ती गई. करीब दो बजे यह हमारे और क़रीब आती लगी.कमरे में सन्नाटा छा गया. जैसे किसी बड़े धमाके की आशंका थी. तभी एक ज़ोरदार धमाका हुआ और कुछ भारी चीज़ छत से टकराई.
दूर कहीं रोने-चिल्लाने की आवाज़ें सुनाई दीं. हम समझ गए कि हमारे पास किसी घर में कुछ हुआ है, लेकिन नुक़सान का अंदाज़ा नहीं लगा सके.
आख़िरकार सुबह सात बजे हम बाहर निकले. मैं कुछ मिनट दरवाजे पर खड़ा रहा. सुबह की डरावनी ख़ामोशी को महसूस कर रहा था.
दूर पहाड़ियों से अब भी धुआँ उठ रहा था. सेना की गाड़ियाँ जल्दी-जल्दी कहीं जा रही थीं.एक एम्बुलेंस तेज़ी से गुज़री. मैंने नीचे देखा. शेल का एक टुकड़ा पड़ा था.
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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