इटली के लग्ज़री फ़ैशन ब्रांड प्राडा से जुड़ा एक हालिया विवाद इस ओर ध्यान दिलाता है कि ग्लोबल फ़ैशन कंपनियों का भारत से कारोबार का रिश्ता कैसा है.
भारत की पारंपरिक कलाएं बेहद समृद्ध रही हैं, लेकिन इसके बावजूद इस विरासत का देश को पूरा लाभ नहीं मिला, क्योंकि वह इससे आर्थिक लाभ कमाने में सफल नहीं हो पाया.
इस साल जून महीने में प्राडा उस समय विवादों में घिर गया जब उसके एक फ़ैशन शो में मॉडल्स ने ऐसे सैंडल पहनकर रैम्प वॉक किया, जो भारत में बनाए जाने वाले पारंपरिक कोल्हापुरी चप्पल जैसे दिखते थे.
ये चप्पलें महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर के नाम से कोल्हापुरी चप्पल के तौर पर बिकती हैं. यहां सदियों से इन्हें बनाया जाता रहा है.
लेकिन प्राडा ने अपने कलेक्शन में इस बात का कोई ज़िक्र नहीं किया था. इसी वजह से ये फ़ैशन ब्रांड सुर्ख़ियों में आ गया और इसे आलोचना का सामना करना पड़ा.
विवाद बढ़ते ही प्राडा ने एक बयान जारी कर कहा कि कंपनी ने सैंडल के मूल स्थान भारत में होने की बात मान ली है और वो भारतीय कारीगरों के साथ 'सार्थक संवाद' के लिए तैयार है.
इस बयान के बाद पिछले दिनों प्राडा की एक टीम ने कोल्हापुर का दौरा किया. टीम ने उन कारीगरों और दुकानदारों से मुलाक़ात की जो ये चप्पल बनाते और बेचते हैं.
टीम के मुताबिक़, ये दौरा उनके काम को क़रीब से समझने के लिए था.
प्राडा ने बीबीसी को बताया कि उसने महाराष्ट्र चैंबर ऑफ़ कॉमर्स, इंडस्ट्री एंड एग्रीकल्चर के साथ एक 'सफल बैठक' की.
बयान में यह भी संकेत दिया गया है कि भविष्य में प्राडा इन कोल्हापुरी चप्पलों के कुछ निर्माताओं के साथ मिलकर काम कर सकता है.
हालांकि अभी यह साफ़ नहीं है कि इसका स्वरूप क्या होगा लेकिन ये एक दुर्लभ उदाहरण है जब किसी ग्लोबल फैशन ब्रांड ने यह स्वीकार किया कि उसने स्थानीय कारीगरों और उनके शिल्प को श्रेय दिए बगैर फ़ायदा उठाया.
अंतरराष्ट्रीय ब्रांड्स पर लगते आरोपअंतरराष्ट्रीय ब्रांड्स पर अक्सर यह आरोप लगते रहे हैं वे भारतीय या दक्षिण एशियाई कारीगरों या कला परंपराओं से प्रेरणा लेकर अपने कलेक्शन को नया बनाने की कोशिश करते रहे हैं लेकिन ऐसा करते वक्त ब्रांड अक्सर श्रेय नहीं देते.
इस साल की शुरुआत में जब रिफॉर्मेशनऔर एचएंडएम ने अपने स्प्रिंग डिजाइन उतारे तो उस पर तीखी बहस छिड़ गई.
लोगों का कहना है कि इन ब्रांड्स ने गलत ढंग से स्थानीय संस्कृति के तत्वों को अपने कपड़ों में शामिल किया है. कई लोगों का मानना था कि उनके डिज़ाइन भारतीय पारंपरिक वस्त्रों से प्रेरित थे.
एचएंडएम ने इन आरोपों से इनकार किया. जबकि रिफॉर्मेशन ने कहा कि उसका डिज़ाइन उस मॉडल की पोशाक से प्रेरित था जिसके साथ उसने यह कलेक्शन तैयार किया था.
सिर्फ़ दो सप्ताह पहले डियो को भी आलोचना का सामना करना पड़ा, जब उसके बहुप्रतीक्षित पेरिस कलेक्शन में एक गोल्ड एंड आइवरी हाउंड्सटूथ कोट प्रदर्शित किया. कइयों ने इसमें 'मुकेश' की कढ़ाई की ओर ध्यान दिलाया. यह उत्तरी भारत की सदियों पुरानी मेटल कढ़ाई की एक तकनीक है.
डियो ने इस कलेक्शन को जारी करते समय इस शिल्प के मूल देश या भारत का कोई ज़िक्र नहीं किया था. बीबीसी ने डियो से उसकी टिप्पणी के लिए संपर्क किया है.
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कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि किसी संस्कृति से प्रेरणा लेने वाले हर ब्रांड का इरादा ग़लत नहीं होता.
दुनिया भर के डिज़ाइनर अलग-अलग परंपराओं के सौंदर्यबोध को अपने डिजाइन में शामिल कर उसे ग्लोबल मंच पर लाते हैं.
कुछ लोगों का मानना है कि फैशन की दुनिया में बहुत ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धा है.
ऐसे में ब्रांड्स को अपने डिजाइनों के सांस्कृतिक असर के बारे में गहराई से सोचने का समय ही नहीं मिल पाता है.
लेकिन आलोचकों का कहना है कि किसी भी सांस्कृतिक तत्व को अपनाने के साथ उसे सम्मान और श्रेय देना जरूरी है.
ख़ासकर जब इन आइडियाज़ को बड़े अंतरराष्ट्रीय ब्रांड बहुत ऊंची कीमतों पर बेचते हैं.
वॉयस ऑफ फ़ैशन की चीफ़ एडिटर शेफाली वासुदेव कहती हैं, "डिज़ाइन का श्रेय देना ज़िम्मेदारी का हिस्सा है. यह डिज़ाइन स्कूलों में पढ़ाया जाता है. ब्रांड्स को भी इस बारे में खुद को शिक्षित करना चाहिए.''
अगर वो ऐसा नहीं करते तो उनकी नज़र में ये दुनिया के उस हिस्से की सांस्कृतिक अनदेखी है, जिसके बारे में ब्रांड्स ये कहते हैं कि वे इससे प्यार करते हैं.
भारत का लग़्जरी मार्केट कितना बड़ा है उसे लेकर अलग-अलग आकलन हो सकता है लेकिन इसमें ग्रोथ की काफी संभावना जताई जा रही है.
बोस्टन कंसल्टिंग ग्रुप के विश्लेषकों का अनुमान है कि भारत का लग्ज़री रिटेल मार्केट 2032 तक लगभग दोगुना होकर 14 अरब डॉलर का हो सकता है.
बढ़ते मध्यवर्ग की वजह से ग्लोबल लग्ज़री ब्रांड भारत को एक प्रमुख बाजार के रूप में देख रहे हैं. वो इससे दूसरे क्षेत्रों में अपनी घटती मांग की भरपाई के तौर पर भी देख रहे हैं.
लेकिन इस तस्वीर से हर कोई सहमत नहीं है.
कंसल्टेंसी फर्म टेक्नोपैक के चेयरमैन अरविंद सिंघल कहते हैं कि भारत को लेकर जो उदासनीता दिखती है, उसकी एक बड़ी वजह ये है कि ज़्यादातर ब्रांड अभी भी इसे हाई स्टैंडर्ड लग़्जरी फैशन के लिए अहम मार्केट नहीं मानते.
हाल के कुछ वर्षों में भारत के बड़े शहरों में कई हाई-एंड मॉल खुले हैं, जिनमें फ़्लैगशिप लग्ज़री स्टोर हैं. लेकिन इन स्टोर्स में बहुत कम ग्राहक आते हैं.
सिंघल कहते हैं "प्राडा जैसे नाम आज भी भारत की बहुसंख्यक आबादी के लिए कोई मायने नहीं रखते. सुपर-रिच तबके में कुछ मांग है, लेकिन पहली बार खरीदने वालों की संख्या बेहद कम है."
वो कहती हैं "और इतनी कम मांग के आधार पर कोई बड़ा कारोबार नहीं खड़ा किया जा सकता. लिहाजा इस क्षेत्र को नजरअंदाज़ करना आसान हो जाता है."
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दिल्ली के फैशन डिज़ाइनर आनंद भूषण भी इससे सहमत हैं.
उनका कहना है कि पारंपरिक रूप से भारत को हमेशा एक प्रोडक्शन हब के रूप में देखा गया है, न कि एक संभावित बाजार के रूप में.
पेरिस और मिलान जैसे शहरों के महंगे ब्रांड अक्सर अपने कपड़े बनवाने या कढ़वाने के लिए भारतीय कारीगरों की मदद लेते हैं.
हालांकि वो कहते हैं "लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आप किसी संस्कृति की चीजों को बगैर उसका इतिहास और संदर्भ समझे उठा लें और उसे करोड़ों डॉलर में बेच दें.''
उनके मुताबिक़ ये हताशा और नाराज़गी किसी एक ब्रांड को लेकर नहीं है. ये नाराज़गी सालों से धीरे-धीरे पनप रही थी.
उनके मुताबिक़ सबसे चर्चित चूक 2011 में हुई थी जब कार्ल लेगरफेल्ड ने अपना "पेरिस-बॉम्बे" मेटिएर्स डी'आर्ट कलेक्शन पेश किया था. इसमें साड़ी की तरह लपेटी हुई ड्रेस और नेहरू कॉलर वाली जैकेट्स और आभूषणों से जड़े हेडपीस ( फैशन शो के दौरान सिर पर पहनी जाने वाली चीज) प्रदर्शित किए गए थे.
कई लोगों ने इसे संस्कृतियों के बीच सहयोग की बेहतरीन मिसाल बताया था. लेकिन कुछ अन्य आलोचकों ने कहा कि ये कलेक्शन एक बंधी-बधाई छवि पर आधारित था. ये इसकी असली सांस्कृतिक विविधता को नहीं दिखा रहा था.
हालांकि कुछ लोगों का ये भी मानना है कि कोई भी ब्रांड अब भारत को नज़रअंदाज़ करने की स्थिति में नहीं है.
ऑनलाइन लग़्जरी स्टोर टाटा क्लिक लग़्जरी की एडिटर-इन-चीफ़ नोनिता कालरा कहती हैं, "हो सकता है हम चीन की तरह सबसे तेज़ी से बढ़ने वाला लग़्जरी बाज़ार न हों, लेकिन भारत की नई पीढ़ी अधिक परिष्कृत है. इसकी पसंद और आकांक्षाएं अलग हैं . उनकी ये पसंद लग़्जरी की दुनिया का स्वरूप बदल रही है."
जहां तक प्राडा का सवाल है तो वो मानती हैं कि ब्रांड से सही में 'एक अनदेखी' हुई है. लेकिन उसने अपनी गलती सुधारने के लिए जो कदम उठाए हैं वो यह दिखाते हैं कि उनकी मंशा सही थी.
कालरा के मुताबिक़ समस्या का दायरा बड़ा है. दरअसल पश्चिम के ब्रांड एक ही तरह के समूह के लोगों की ओर से चलाए जाते हैं. दुनिया के दूसरे हिस्सों के उपभोक्ताओं को वो एक विदेशी चश्मे से देखते हैं.
वो कहती हैं, "फैशन इंडस्ट्री की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि उसमें विविधता का अभाव है. ब्रांड्स को दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से लोगों को अपनी टीम में शामिल करना चाहिए तभी ये एकांगी सोच बदलेगी.''
'' लेकिन यह भी सच है कि इन ब्रांड्स का भारत की विरासत के प्रति प्रेम और सम्मान सच्चा है.''
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सांस्कृतिक स्वामित्व (यानी किसी वर्चस्व वाली संस्कृति की ओर से किसी दूसरी संस्कृति की चीजों को ले लेना) एक पेचीदा मामला है. इससे जुड़े ऑनलाइन डिबेट कभी बढ़ा-चढ़ा कर पेश की जाती है तो कभी ये आंखें खोलने वाली भी होती है.
भले ही इस मुद्दे का कोई आसान जवाब न हो. लेकिन कई लोगों का मानना है कि प्राडा के मामले में उभरा आक्रोश एक ऐसी अहम शुरुआत है. अब उन ब्रांड्स और डिज़ाइनरों से ज़िम्मेदारी की मांग की जा रही है जो अब तक बिना किसी सवाल के दूसरों की सांस्कृतिक विरासतों का इस्तेमाल करते आ रहे थे.
यह भारत के लिए एक अवसर भी है. अपनी विरासत को बेहतर तरीके से पहचानने, संरक्षित करने और उसे दुनिया के सामने मजबूत तौर पर पेश करने का.
कारीगर हफ़्तों या महीनों तक मेहनत करते हैं ताकि वे एक 'मास्टरपीस' तैयार कर सकें. वो अक्सर पर्याप्त मेहनताना और अंतरराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा क़ानूनों के तहत मिली सुरक्षा के बगैर काम करते हैं.
शेफाली वासुदेव कहती हैं, '' दरअसल हम अपने कारीगरों पर न तो गर्व करते हैं और न ही उन्हें पर्याप्त श्रेय देते हैं, जिससे दूसरे देश और ब्रांड्स उनके ऊपर हावी हो जाते हैं. "
कारीगरी और कारीगरों का बढ़ावा देने वाली संस्था 'दस्तकार' की अध्यक्ष लैला तैयबजी कहती हैं, " भारत में दिक्कत यह भी है कि हमारे पास शिल्प तकनीकें और परंपराएं इतनी ज़्यादा हैं कि हम खुद ही उन्हें गंभीरता से नहीं लेते. इनकी मोटिफ़ की डायरेक्टरी सदियों पुरानी हैं और लगातार बदलती रहती हैं."
वो कहती हैं, ''हम पूरी तरह से कढ़ाई की गई जूतियों की एक जोड़ी का मोलभाव करते हैं लेकिन नाइकी के ट्रेनर (स्पोर्ट्स शूज ) को दस गुना दाम पर तुरंत खरीद लेते हैं. जबकि नाइकी का जूता मशीन से बना होता है. जबकि जूतियां कोई कारीगर अपने हाथ से बड़ी ही सावधानी और सधे तरीके से तैयार करता है और हर बार एक अनोखे डिज़ाइन के साथ.''
और जब तक ऐसी सोच बनी रहेगी. विदेशी डिज़ाइनर और क़ारोबारी ऐसा करते रहते हैं. (जैसा कि प्राडा मामले में हुआ)
वो कहती हैं, '' चीजें वास्तव में तभी बदलेंगी जब हम ख़ुद अपने कारीगरों, शिल्प और विरासत का सम्मान करना सीखें. उनके शोषण का विरोध करने के लिए हमारे पास क़ानूनी और सामाजिक औज़ार भी मौजूद हों.''
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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