अलास्का के एंकोरेज में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की आमने-सामने मुलाक़ात का कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आया.
व्हाइट हाउसने कहा था कि बातचीत का मुख्य मुद्दा यूक्रेन युद्ध होगा. लेकिन लगभग तीन घंटे चली बातचीत के बाद रूस-यूक्रेन युद्ध को रोकने पर सहमति बनने का कोई संकेत नहीं मिला.
ट्रंप ने कहा, "कोई समझौता तब तक नहीं होगा, जब तक असल में समझौता नहीं हो जाता." वहीं पुतिन ने कहा कि संघर्ष (रूस-यूक्रेन) ख़त्म करने के लिए उसके "मूल कारण" को ख़त्म करना होगा.
ट्रंप और पुतिन की इस मुलाक़ात पर पूरी दुनिया की निगाहें थीं.
साथ ही इस बैठक के नतीजों का भारत में भी बेसब्री से इंतजार था. ऐसा इसलिए क्योंकि बातचीत से चंद दिन पहले ही अमेरिकी वित्त मंत्री स्कॉट बेसेंट ने ये कहकर खलबली मचा दी थी कि अगर ट्रंप और पुतिन की बातचीत में कुछ नतीजा निकलकर नहीं आया तो भारत पर टैरिफ़ और बढ़ा दिया जाएगा.
ट्रंप की दलील ये रही है कि भारत पर जितना अधिक टैरिफ़ लगेगा, रूस पर उतना ही अधिक दबाव बनाया जा सकेगा.
सवाल ये है कि अब इस बेनतीजा रही बातचीत का भारत और बाकी दुनिया का क्या असर होगा? और क्या अब भारत अमेरिका की ओर से घोषित 50 फ़ीसदी टैरिफ़ में राहत की उम्मीद कर सकता है?
राहत मिलेगी या आफ़त बढ़ेगी?डोनाल्ड ट्रंप भारतीय सामानों पर 25 फ़ीसदी टैरिफ़ पहले ही लगा चुके हैं. इसके बाद 7 अगस्त को रूस से तेल खरीदने को वजह बताते हुए उन्होंने भारत पर 25 फ़ीसदी अतिरिक्त टैरिफ़ का एलान कर दिया.
हालांकि ये अतिरिक्त टैरिफ़ 27 अगस्त से लागू होंगे.
अलास्का में पुतिन के साथ बैठक के लिए जाते वक्त एयर फ़ोर्स वन से फ़ॉक्स न्यूज़ को दिए इंटरव्यू में डोनाल्ड ट्रंप ने भारत का ज़िक्र किया.
उन्होंने कहा, "असल में उन्होंने (रूस) एक ऑयल क्लाइंट खो दिया है, यानी भारत, जो लगभग 40 फ़ीसदी तेल ले रहा था. चीन, जैसा कि आप जानते हैं, काफ़ी मात्रा में ले रहा है... और अगर मैंने सेकेंडरी सेंक्शंस लगाए तो यह उनकी नज़र से बेहद विनाशकारी होगा. अगर मुझे करना पड़ा तो मैं करूंगा, शायद मुझे ऐसा न करना पड़े."
वहीं पुतिन के साथ मुलाक़ात के बाद को दिए एक अन्य इंटरव्यू में उन्होंने कहा "अब मुझे शायद दो या तीन हफ़्ते या कुछ और समय बाद इस बारे में सोचना पड़ेगा, लेकिन हमें अभी इसके बारे में सोचने की ज़रूरत नहीं है."
हालांकि ट्रंप के इस जवाब से ये पता नहीं चलता कि वो चीन के ख़िलाफ़ सेकेंडरी टैरिफ़ रोकने की बात कर रहे हैं या भारत के ख़िलाफ़.
विशेषज्ञों का कहना है कि भारत और अमेरिका के बीच 25 अगस्त को व्यापार वार्ता फिर शुरू होनी है, जो 27 अगस्त के डेडलाइन से सिर्फ़ दो दिन पहले है. ऐसे में माना ये जा रहा है कि ट्रंप ने शायद अपने लिए पीछे हटने की गुंजाइश बना ली है.
लेकिन पिछले दिनों भारत और अमेरिका के बीच संबंधों में आई तल्खी को देखते हुए कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि अलास्का में पुतिन के साथ मीटिंग के बाद अमेरिका और भारत के रिश्ते और ख़राब हो सकते हैं.
वॉशिंगटन डीसी स्थित विल्सन सेंटर के निदेशक माइकल कुगलमैनने एक्स पर लिखा, ''किसी समझौते की घोषणा न होने से ऐसा लगता है कि मुलाक़ात अच्छी नहीं रही. अब अमेरिका-भारत के बीच और तनाव बढ़ सकता है."
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विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रंप भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को नज़रअंदाज़ करते आ रहे हैं.
ट्रंप की इस नीति के बाद भारत के लिए ये ज़रूरी हो गया कि वो अमेरिका के साथ अपने संबंधों की समीक्षा पर विचार शुरू कर दे.
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ़ इंटरनेशनल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर अरविंद येलेरी ने बीबीसी से कहा, "अब रूस और चीन कह रहे हैं कि हमने आपको (भारत) पहले ही आगाह किया था कि अमेरिका पर भरोसा न करें."
वो कहते हैं, "दोनों देश अब भारत का समर्थन करते नज़र आ रहे हैं. दोनों ने कहा है कि रणनीतिक स्वायत्तता भारत का हक़ है. अमेरिका इसे नज़रअंदाज नहीं कर सकता. भारत को ये फ़ैसला करने का पूरा हक़ है कि वो किससे तेल खरीदे और किससे नहीं.''
अरविंद येलेरी उस घटना की याद दिलाते हैं जब एक तरफ भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर अमेरिका में ट्रंप के शपथ ग्रहण में जाने की तैयारी में थे और दूसरी तरफ अमृतसर में कथित तौर पर वैध दस्तावेज़ के बिना अमेरिका में रहने वाले भारतीय विमान से उतारे जा रहे थे.
वो कहते हैं, ''ये भारत और अमेरिका के बीच ट्रस्ट डेफ़िसिट का मामला नहीं था. ये भारत के लिए ट्रस्ट शॉक था. ट्रस्ट डेफ़िसिट धीरे-धीरे कम होता है. ऐसे हालात में हमें पता होता है इससे निकलने का रास्ता क्या है.''
आगे वो कहते हैं, ''लेकिन जब शॉक लगता है तो संभलने का मौक़ा बहुत कम होता है. अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रंप के तरीकों से भारत की अमेरिकी नीतियों के लिए चुनौती शुरू हो गई थी. और अब टैरिफ़ की धमकी के बाद से तो ये और बड़ी हो गई हैं.''
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मौजूदा हालात के बीच एक सवाल ये भी उठ रहा है कि क्या भारत अमेरिका का दामन छोड़ अब रूस का और क़रीबी हो जाएगा?
रूस से भारत के रिश्ते पुराने हैं. भारत लंबे समय तक सामरिक और आर्थिक तौर पर रूस पर काफ़ी अधिक निर्भर था.
लेकिन तीन दशक पहले भारत ने अमेरिका के साथ भी रिश्ते मज़बूत करने की शुरुआत की. भारत को अपने आर्थिक उदारीकरण में इसका काफ़ी फ़ायदा मिला. उसे अमेरिका से नई टेक्नोलॉजी भी मिली.
भारतीय पेशेवरों को अमेरिका में बड़ी तादाद में नौकरियां मिलीं. बड़ी संख्या में भारतीय स्टूडेंट्स वहां के विश्वविद्यालयों में पढ़ रहे हैं.
लेकिन भारत के ख़िलाफ़ ट्रंप के हाल के कुछ कदमों के बाद ये कहा जाने लगा है कि वो एक बार फिर रूस के क़रीब जा सकता है.
हालांकि कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि रूस अमेरिका का विकल्प नहीं हो सकता.
विदेश और रणनीतिक मामलों पर रिसर्च करने वाली संस्था अनंता सेंटर की सीईओ इंद्राणी बागची ने बीबीसी से कहा, ''रूस ने खुद को बेहद कमज़ोर बना लिया है. उसके पास अब क्या है? रूस के और नज़दीक जाकर भारत को क्या मिलेगा? सिर्फ़ परमाणु हथियार और तेल. रूस के पास नई टेक्नोलॉजी नहीं है और उसने अपनी इकोनॉमी का बुरा हाल कर लिया है. भारत को अब रूस से ज़्यादा नज़दीकी बढ़ाने का फ़ायदा नहीं है.''
इंद्राणी बागची का कहना है कि रूस अब पूरी तरह से चीन पर निर्भर है और चीन और भारत के बीच सीमा विवाद के चलते तनाव बढ़ गया है.
वो कहती हैं, ''इसलिए भारत को रूस के और ज़्यादा क़रीब जाने से पहले कई बार सोचना होगा.''
उनका कहना है कि चीन से टकराव की हालत में रूस खुलकर भारत का पक्ष लेगा, ये कह पाना संभव नहीं है.

इंद्राणी बागची का कहना है कि अमेरिका के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की गुंजाइश अभी भी बची हुई है.
वो कहती हैं, "टैरिफ़ लगाने से कोई देश किसी का दुश्मन तो नहीं हो जाता. सामरिक और रणनीतिक रिश्ते टैरिफ़ से तय नहीं होते. भारत में टैरिफ़ बहुत ऊंचे हैं. तो क्या इससे भारत के दूसरे देशों के साथ संबंध बिगड़ गए हैं."
इंद्राणी बागची का कहना है कि भारत पर अमेरिका का हाई टैरिफ़ भारत के लिए 'वेक-अप कॉल' है. भारत को अब जाग जाना चाहिए और अपने आर्थिक सुधारों को और तेज़ करना चाहिए.
वो कहती हैं, "भारत को टैरिफ़ घटाना चाहिए ताकि विदेश से हमारा कारोबार और बढ़े. भारत में और ज़्यादा विदेशी निवेश हो और रोजगार बढ़े."
उनका मानना है कि ये भारत के लिए अब एक बार फिर 1991 के आर्थिक सुधारों जैसे कदम उठाने का मौक़ा हो सकता है.
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ट्रंप और पुतिन की मुलाक़ात के बाद एक और बड़ा सवाल ये उठ रहा है कि क्या इस बातचीत के बाद यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस का रवैया नरम हो सकता है.
ऐसा इसलिए, क्योंकि ट्रंप ने कहा है कि जे़लेंस्की और पुतिन के बीच सीधी बातचीत होनी चाहिए. फॉक्स न्यूज़ को दिए इंटरव्यू में उन्होंने इसके संकेत दिए.
विशेषज्ञों का मानना है कि पुतिन का अमेरिका आकर ट्रंप से बात करना बेहद अहम घटनाक्रम है. हालांकि वो ये मानते हैं कि पूरी दुनिया को ये पता था कि पहली ही मुलाक़ात में रूस-यूक्रेन युद्धविराम को लेकर किसी सकारात्मक नतीजे की उम्मीद नहीं की जा सकती.
क्योंकि जिस यूक्रेन को लेकर अमेरिका और रूस के बीच चर्चा हो रही थी उसी के राष्ट्रपति की गै़रमौजूदगी में इससे जुड़ा कोई बड़ा फ़ैसला कैसे हो सकता था.
यूरोप के नेताओं ने एक साझा बयान जारी कर यूक्रेन की संप्रभुता के प्रति अपना अटूट समर्थन दोहराया है. इन मुल्कों ने कहा कि रूस यह तय नहीं कर सकता कि यूक्रेन भविष्य में नेटो या यूरोपीय संघ से कैसे जुड़ेगा.
उन्होंने यह भी कहा कि रूस पर तब तक कड़े आर्थिक प्रतिबंध और दबाव बनाए रखा जाएगा जब तक यूक्रेन में "न्यायपूर्ण और स्थायी शांति" स्थापित नहीं हो जाती.
ब्रिटेन के प्रधानमंत्री कीएर स्टार्मर और फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों जैसे नेताओं ने भले ही डोनाल्ड ट्रंप की पुतिन से मुलाक़ात की पहल की तारीफ़ की, लेकिन साफ़ कहा कि किसी भी बातचीत में यूक्रेन के लिए ठोस सुरक्षा गारंटी देनी होगी.
वोलोदिमीर ज़ेलेंस्कीने ट्रंप के इस प्रस्ताव का स्वागत किया कि बातचीत में यूक्रेन भी शामिल हो, लेकिन उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि सुरक्षा गारंटी सुनिश्चित करने के लिए यूरोप की भागीदारी ज़रूरी है.
ज़ेलेंस्की ने बताया कि वे सोमवार को अमेरिका की यात्रा करेंगे. यह फ़ैसला उन्होंने ट्रंप के साथ हुई एक "लंबी और सार्थक" बातचीत के बाद लिया. उनका कहना है कि उन्हें अमेरिका की भावी सुरक्षा व्यवस्था में भागीदारी को लेकर "सकारात्मक संकेत" मिले.
हालांकि, ट्रंप के बाद के बयान ने यूक्रेन और यूरोपीय देशों की चिंता बढ़ा दी है. फ़ॉक्स न्यूज़पर सीन हैनिटी को दिए इंटरव्यू में ट्रंप ने रूस और यूक्रेन की ताक़त की तुलना करते हुए कहा, "रूस बहुत बड़ी ताक़त है लेकिन यूक्रेन नहीं इसलिए जेलेंस्की को "समझौता करना ही होगा."
यूरोप के नेताओं के लिए एक तरह से ये संकेत है कि ट्रंप रूस से तो कोई गारंटी नहीं ले पा रहे हैं लेकिन यूक्रेन पर रियायत देने का दबाव डाल सकते हैं.
ट्रंप-पुतिन मुलाक़ात के बाद यूरोप के नेताओं के बयानों ने भी ये साफ़ कर दिया है कि अब अमेरिका और यूरोप के रिश्तों में दरार और बढ़ सकती है. ट्रंप ये शर्त लाद सकते हैं कि रूस यूक्रेन का जीता हुआ हिस्सा रख ले तभी शांति हो सकती है. लेकिन इस पर यूरोपीय देश कभी सहमति नहीं देंगे.
दूसरा अहम मुद्दा नेटो के भीतर अमेरिका और यूरोपीय देशों के बीच टकराव है. दूसरी बार सत्ता में आने के बाद से ही ट्रंप यूरोप की सुरक्षा का खर्चाउठाने से इनकार करते रहे हैं. उन्होंने बार-बार कहा है कि यूरोप को अपनी सुरक्षा का खर्चा बढ़ाना होगा.
ट्रंप का कहना है कि अब ये नहीं चलेगा कि यूरोप के देश खुद को वेलफे़यर स्टेट बनाए रखें और सुरक्षा का खर्च अमेरिका पर डाल दें.
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यूक्रेन को हथियारों की मदद देने के मामले में अमेरिका का अब ये स्पष्ट रुख़ है कि भले ही वो नेटो का सदस्य है लेकिन अब वो इसका खर्च बर्दाश्त नहीं करेगा, यूरोप को इसका खर्च खुद उठाना होगा.
दूसरी ओर यूरोप के नेता चाहते हैं कि रूस-यूक्रेन युद्ध ख़त्म हो लेकिन इसमें यूक्रेन को कॉम्प्रोमाइज़ न करना पड़े. वो चाहते हैं कि युद्धविराम के लिए रूस की हर शर्त न मानी जाए.
पुतिन इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं रूस ने यूक्रेन के जिन इलाक़ों पर कब्ज़ा कर लिया है वो उसे दे दिया जाए. यूक्रेन के लिए ये शर्त मानना मुश्किल है. जबकि ट्रंप चाहते हैं कि यूक्रेन रूस को इस मामले में रियायत देकर उससे समझौता कर ले.
इंद्राणी बागची कहती हैं कि रूस ने युद्ध करके किसी देश की ज़मीन ले ली है, कोई भी संप्रभु देश (यूक्रेन) हथियाई हुई अपनी ज़मीन पर कैसे दावा छोड़ सकता है.
वहीं अरविंद येलेरी का कहना है कि यूरोप को अब अमेरिका से अपने रिश्तों के बारे में पुनर्विचार करना होगा.
वो कहते हैं कि यूरोप अब एक स्विंग स्टेट की तरह व्यवहार नहीं कर सकता है. उसे भारत, चीन और दूसरे उभरते देशों के साथ रिश्ते मज़बूत करने होंगे.
शायद यूरोप के अंदर इस सोच पर काम शुरू हो गया है. पिछले दिनों ब्रिटेन ने भारत के साथ जिस तरह एफ़टीए (मुक्त व्यापार समझौता) किया, वो इसका उदाहरण है.
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- भारत-पाकिस्तान और इसराइल-ईरान तनाव के बीच भारत में बढ़े रूसी मीडिया के फॉलोअर्स
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