रांची, 3 सितंबर . कोई किताबों के बोझ तले दबकर टूट गया. कोई नौकरी खोकर अंधेरे में डूब गया. किसी ने अपनों के तिरस्कार से मनोबल खो दिया. किसी को इश्क में नाकामी मिली तो संतुलन खो दिया. ऐसे लोगों की जिंदगी में रांची स्थित संस्थान रिनपास यानी ‘रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकेट्री एंड एलायड साइंस’ उम्मीदों की नई रोशनी भर रहा है.
4 सितंबर को यह संस्थान अपनी स्थापना के 100 साल पूरे करने जा रहा है. रांची के कांके इलाके में हरियाली के बीच बसा ‘रिनपास’ सिर्फ एक अस्पताल नहीं है, बल्कि भारतीय मनोचिकित्सा के इतिहास का जीवंत दस्तावेज है. अब यह संस्थान आधुनिक मनोचिकित्सा, काउंसलिंग और पुनर्वास के क्षेत्र में मानक तय कर रहा है.
आज न सिर्फ झारखंड, बल्कि पूरे पूर्वी भारत के लिए मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का सबसे बड़ा आधार है. रांची की धरती पर इस संस्थान की यात्रा भले ही 100 साल पुरानी है, लेकिन इसकी कहानी शुरू होती है 1795 में. मुंगेर (बिहार) में गंगा नदी के किनारे एक मानसिक चिकित्सालय की नींव रखी गई. नाम था- ल्यूनेटिक एसाइलम. करीब ढाई दशक बाद, 1821 में इसे Patna कॉलेजिएट स्कूल परिसर में शिफ्ट कर दिया गया. लंबे समय तक यह वहीं चला, लेकिन जैसे-जैसे मरीजों की संख्या बढ़ी और जगह कम पड़ने लगी, इसे नई जगह तलाशनी पड़ी. यही खोज रांची के कांके तक पहुंची, जहां 4 सितंबर, 1925 को संस्थान को आधिकारिक रूप से शिफ्ट कर दिया गया.
उस वक्त यहां मरीजों की संख्या महज 110 थी. दिलचस्प बात यह है कि संयुक्त भारत के दौरान यहां सिर्फ बिहार, बंगाल और ओड़िशा ही नहीं, बल्कि आज के बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान, उससे पहले ढाका) के मरीज भी इलाज के लिए आते थे. उस दौर में इसका नाम इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ रखा गया था. 1958 में इस संस्थान का नाम बदलकर रांची मानसिक आरोग्यशाला कर दिया गया. लेकिन असली मोड़ आया 1994 में, जब एक घटना के बाद Supreme court ने इसके संचालन में दखल दिया और इसे स्वायत्त बनाने का आदेश दिया. लंबी प्रक्रिया के बाद 10 जनवरी 1998 को यह संस्थान स्वायत्त हुआ और नए नाम रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकेट्री एंड एलायड साइंस (रिनपास) के साथ सामने आया.
यह नाम उसकी आधुनिक पहचान और विस्तृत सेवाओं का परिचायक बन गया. झारखंड राज्य बनने के समय संस्थान में करीब 16,175 मरीज पंजीकृत थे. बिहार और ओड़िशा के मरीजों का इलाज यहां होता था और दोनों राज्य इलाज का खर्च वहन करते थे. एक वक्त था, जब इसे लोग ‘पागलखाना’ के नाम से जानते थे. सामाजिक कलंक और अज्ञानता ने मानसिक बीमारियों को मजाक और शर्म का विषय बना दिया था, लेकिन समय के साथ रिनपास ने इस धारणा को बदलने में अहम भूमिका निभाई.
आज इस संस्थान में देश के हर कोने से हर रोज करीब 600 लोग ओपीडी में इलाज कराने पहुंचते हैं. यहां भर्ती मरीजों की संख्या भी 500 से ज्यादा है. ऐसे मरीजों की संख्या लाखों में है, जो इलाज के बाद न सिर्फ मनोरोग से उबरे, बल्कि नई जिंदगी शुरू की. रिनपास के निदेशक डॉ. अमूल रंजन सिंह कहते हैं, ‘रिनपास की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि इसने 100 साल की यात्रा में लाखों निराश लोगों में उम्मीद जगाई है. सबसे बड़ी बात यह है कि आज अगर मनोरोग के प्रति लोगों की धारणाएं बदली हैं और ग्रंथियां दूर हुई हैं, तो उसमें रिनपास जैसे संस्थान की बहुत बड़ी भूमिका है.’
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एसएनसी/डीएससी
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