चाइल्ड पॉर्नोग्रफी पर सोमवार को सुनाए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले को अगर खुद मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ ने ऐतिहासिक बताया है तो यह बेवजह नहीं है। सर्वोच्च अदालत ने न केवल मद्रास हाईकोर्ट के संबंधित फैसले को पलट दिया बल्कि इस अपराध से जुड़े अलग-अलग पहलुओं पर बड़ी बारीकी से और उतने ही विस्तार से चर्चा की। यही नहीं, इस अपराध को देखे जाने के प्रचलित नजरिए में गंभीर संशोधन की जरूरत बताते हुए कोर्ट ने संसद को यह सुझाव भी दिया कि चाइल्ड पॉर्नोग्रफी के बदले 'बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री' का इस्तेमाल किया जाए। ढीला-ढाला रवैया : इस अपराध को लेकर समाज के एक हिस्से में किस तरह का ढीला-ढाला रवैया अपनाया जाता है इसका कुछ अंदाजा मद्रास हाईकोर्ट के उस फैसले से भी होता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया। हाईकोर्ट ने 28 साल के व्यक्ति के खिलाफ दर्ज क्रिमिनल केस को यह कहते हुए रद्द कर दिया था कि चाइल्ड पॉर्नोग्रफी के विडियो डाउनलोड करना या देखना अपने आप में अपराध नहीं। कोर्ट का यह भी कहना था कि आजकल बच्चों में पॉर्न देखना एक बड़ा मसला है और इन्हें दंडित करने के बजाय शिक्षित करने की जरूरत है। स्वतंत्र उपधाराएं : सुप्रीम कोर्ट ने बच्चों के विक्टिमाइजेशन से जुड़े पहलुओं को अहमियत देते हुए इस मसले को देखा और समझा कि हाईकोर्ट के नजरिए में गंभीर खामियां हैं। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर कोई चाइल्ड पॉर्नोग्रफी के विडियो डाउनलोड करता है, देखता है और उसे डिलीट करने या रिपोर्ट करने में नाकाम होता है तो कानून के तहत उस पर केस बनता है। यह भी स्पष्ट हुआ कि इस कानून की धारा 15 के तहत आने वाली उपधाराएं (1), (2) और (3) एक दूसरे से स्वतंत्र हैं। यानी कोई मामला अगर किसी एक उपधारा के दायरे में नहीं आता तो भी वह दूसरी उपधारा के अंतर्गत आ सकता है। फर्क है अहम : समाज के एक बड़े तबके में पॉर्न विडियो का फैलाव बढ़ गया है जो एक बड़ी समस्या है। इस वजह से इस तरह के डर की भी गुंजाइश बनती है कि अगर किसी के वट्सऐप पर कोई आपत्तिजनक विडियो आता है जो डिलीट होने से रह जाता है तो कहीं संबंधित व्यक्ति को अपराधी न मान लिया जाए। मगर यहां विडियो आने और उसे डाउनलोड करने और देखे जाने का फर्क याद रखने लायक है। नजर की बारीकी : सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले की खासियत यह भी है कि इसने कानूनी दृष्टि को वह बारीकी दी है जो ऐसे आपराधिक मकसद वाले मामलों को अन्य मामलों से अलग कर सके और अपराधियों को 'शिक्षित' करने की जरूरत की ढाल न लेने दे।
Editorial
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