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ईरान-इजरायल और वो... युद्ध हुआ तो कैसे बदलेंगे दुनिया के समीकरण?

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स्वपन दासगुप्ता का लेख पिछले साल 7 अक्टूबर को हमास की ओर से इजरायली नागरिकों पर किए गए आतंकी हमले के बाद दुनिया भर में मिली-जुली प्रतिक्रिया देखने को मिली। जहां एक तरफ इस आतंकवाद की निंदा हुई और इजरायल से संयम बरतने की अपील की गई। वहीं दूसरी तरफ दुनिया भर में फिलिस्तीन समर्थक संगठनों ने सड़कों और यूनिवर्सिटी कैंपस में प्रदर्शन किए। इन प्रदर्शनों में फिलिस्तीनी झंडों की भरमार देखने को मिली, जिसका मकसद हमास द्वारा बंधक बनाए गए लोगों से ध्यान हटाना और दुनिया को फिलिस्तीनियों के साथ हो रहे अन्याय की याद दिलाना था। इस बार इजरायल के हमले पर वैसा आक्रोश क्यों नहीं?हमास द्वारा इजरायली नागरिकों पर किए गए हमले के बाद दुनिया भर में फिलिस्तीन के समर्थन में जो माहौल बना, उसका पूरा असर अभी आंकना जल्दबाजी होगी। लेकिन इतना तो तय है कि इसने पश्चिमी देशों में मुस्लिम पहचान को मजबूत किया है और वामपंथी विचारधारा वाले छात्रों को अपनी ओर आकर्षित किया है। हालांकि, यह उतना बड़ा आंदोलन नहीं बन पाया जितना कि वियतनाम युद्ध या दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के खिलाफ आंदोलन था।यह बात भी गौर करने लायक है कि लेबनान में हिजबुल्लाह के खिलाफ इजरायल की कार्रवाई पर दुनिया भर में उतना आक्रोश देखने को नहीं मिला। इतना जरूर है कि युद्धविराम की अपील और इजराइल से संयम बरतने की मांग उठी। लेकिन इस बार वह गुस्सा गायब था जो कुछ महीने पहले देखने को मिला था। जब यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि इजरायल अंदर से टूट रहा है और बेंजामिन नेतन्याहू का राजनीतिक करियर खतरे में है। यह भी कहा गया कि अमेरिकी नेता इजरायल से दूरी बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इजरायल ने अपनी ताकत का कराया अहसासहालांकि कोई भी इस बात को खुलकर नहीं कहेगा, लेकिन लेबनान में इजरायल की कार्रवाई, जिसमें उसने पहले धमाके करने वाले पेजर भेजे और फिर हिजबुल्लाह नेतृत्व को निशाना बनाया। इसके बाद दुनिया को एक बार फिर इजरायल की ताकत और उसके इरादों की याद दिला दी। इसके विपरीत, पिछले मंगलवार को जब ईरान ने इजराइल पर 180 मिसाइलें दागीं तो तेहरान में हुई खुशी बनावटी सी लग रही थी। कहा जा रहा है कि ईरान की इन मिसाइलों में से दो-चार से ज्यादा इजराइल के अत्याधुनिक हवाई सुरक्षा सिस्टम को भेद नहीं पाईं।ईरान कागजी शेर है या नहीं, यह तो अभी पता नहीं। लेकिन इजरायल के साथ लड़ाई में अपने सहयोगी हिजबुल्लाह को कमजोर होता देख अमेरिका और अन्य यूरोपीय देशों को एक बार फिर इजरायल के प्रति अपना समर्थन दोहराना पड़ा है। इसका असर अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव पर भी पड़ा है और दोनों उम्मीदवार इजरायल के प्रति अपना समर्थन जताने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। अगर इससे अमेरिका में रहने वाले मुस्लिम और अरब मतदाता कमला हैरिस से दूरी बनाते हैं तो इसका फायदा डोनाल्ड ट्रंप को हो सकता है। यूरोप में किस बात को लेकर नाराजगीयूरोप में भी फिलिस्तीन समर्थक रवैये (खासकर विश्वविद्यालय परिसरों में) को लेकर मुख्यधारा के राजनेताओं का धैर्य जवाब देने लगा है। गाजा के साथ एकजुटता दिखाने के नाम पर मुस्लिम पहचान को इस तरह से आगे बढ़ाया गया कि इससे यूरोप के मतदाताओं में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई । आज एक के बाद एक देश में मतदाता ऐसी पार्टियों को चुन रहे हैं जो आव्रजन रोकने की बात करती हैं और यहां तक कि पुनर्वास, यानी शरणार्थियों को वापस भेजने की मांग भी करती हैं। पिछले हफ्ते ऑस्ट्रिया में फ्रीडम पार्टी ने जीत हासिल की और इससे पहले गर्मियों में जर्मनी के प्रांतीय चुनावों में अल्टरनेटिव फॉर ड्यूशलैंड ने शानदार प्रदर्शन किया था।कई यूरोपीय देशों में लोगों को दूसरे देशों से आने वाले लोगों पर नाराजगी हो रही है। इस वजह से, इन देशों की सरकारें यूरोपीय संघ के नियमों की परवाह किए बिना, अपने देश में आने वाले लोगों पर बहुत सख्त नियम लगा रही हैं। यूरोप के कई देशों में लोगों को लगता है कि दूसरे देशों से आने वाले लोग उनके देश के लिए समस्याएं पैदा कर रहे हैं। इसीलिए, ये देश अपने देश में आने वाले लोगों पर बहुत सख्त नियम लगा रहे हैं। ये नियम यूरोपीय संघ के उन नियमों के खिलाफ हैं जो सभी देशों के लिए समान हैं।इसके अलावा, यूरोपीय देशों के बीच विदेश नीति को लेकर भी मतभेद बढ़ रहे हैं। उदाहरण के लिए जब इजरायल और लेबनान के बीच झगड़ा हुआ तो यूरोपीय देशों के मंत्री इस बात पर सहमत नहीं हो पाए कि इस मामले में क्या करना चाहिए। कुछ देश इजराल का समर्थन कर रहे थे तो कुछ लेबनान का।
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