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लेख: कर्नाटक की कलह पर क्या चाहते हैं खरगे? हिमाचल और तेलंगाना में भी ठीक नहीं हैं हालात

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लेखिका: भाषा सिंह

देश में सिर्फ तीन राज्यों में कांग्रेस की सरकार है और तीनों जगहों पर हाल ठीक नहीं है। तेलंगाना, हिमाचल और कर्नाटक में अक्सर ही पार्टी के अंदर आपसी टकराव उमड़ता रहता है। कर्नाटक में इस समय खलबली मची हुई है। यहां कांग्रेस सरकार पर मंडराया संकट भले ही ऊपर से मैनेज किया जा रहा है, लेकिन अंदरूनी टकराव बना हुआ है। इस टकराव के आने वाले दिनों में फिर जोर पकड़ने की चर्चाएं तेज हैं। ऐसे में कांग्रेस को सबसे पहले अपने घर को दुरुस्त करना होगा। इसके बाद ही वह देश में मजबूत विपक्ष की भूमिका निभा सकती है।



सत्ता के दो ध्रुव: कर्नाटक में सत्ता के दो ध्रुव हैं - मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और उप-मुख्यमंत्री डी.के. शिवकुमार। वर्ष 2023 में सरकार बनने के समय से ही दोनों में रस्साकशी चल रही है। जून 2025 में फिर संकट गहराया, जब डी.के. शिवकुमार के समर्थकों ने यह दांव चला कि 100 कांग्रेसी विधायक सत्ता में बदलाव चाहते हैं और सिद्धारमैया को हटाकर अब शिवकुमार को मुख्यमंत्री बना देना चाहिए।



उठापटक जारी: कांग्रेस आलाकमान ने ऑल इंडिया कांग्रेस कमिटी के महासचिव रणदीप सुरजेवाला को संकट हल करने के लिए भेजा। बैठक हुई, वह विधायकों से मिले भी। मीटिंग के बाद सारी बयानबाजी भी हो गई कि ऑल इज वेल, कांग्रेस में एकता है, मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर कोई विवाद नहीं है। सिद्धारमैया और डी.के. शिवकुमार ने हाथ मिलाकर फोटो भी खिंचवा लिए मैसूर में, लेकिन यह ऊपर से की गई पेंटिंग के अलावा कुछ नहीं था। सारी कवायद के बाद तुरंत ही फिर असहमति के स्वर उठने लगे और फिर से खींचतान और उठापटक शुरू हो गई।



भारी पड़ी आपसी लड़ाई: दरअसल, ये कांग्रेसी क्षत्रपों की बहुत पुरानी बीमारी है। राजस्थान से लेकर हरियाणा और मध्यप्रदेश तक सत्ता से बाहर रहने के बावजूद कांग्रेसी नेताओं की पहली चिंता BJP को हराकर सत्ता में आने से ज्यादा अपने प्रतिद्वंदी कांग्रेसी नेता को हराने की रही है। राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट की लड़ाई तो सड़कों पर उतर कर एक-दूसरे के खिलाफ विष-वमन करने तक पहुंच गई थी। हरियाणा में भूपेंद्र हुड्डा बनाम अन्य कांग्रेसी नेताओं की लड़ाई ने BJP को चुनावी जीत थाली में परोस कर दे दी।



पेचीदा है मसला: कर्नाटक में मामला पेचीदा है। सिद्धारमैया बेहद लोकप्रिय नेता हैं। वह कुरबा समाज से आते हैं, जो अत्यंत पिछड़ा है। सोशल इंजीनियरिंग में माहिर सिद्धारमैया का अहिंदा जातिगत समीकरण BJP की हार का बड़ा कारण बना। उधर, डी.के. शिवकुमार आर्थिक-सामाजिक रूप से संपन्न समुदाय वोक्कालिगा से आते हैं। धनबल, बाहुबल और विधायक बल के लिहाज से वह मजबूत जमीन पर खड़े हैं। इन दोनों नेताओं का कॉम्बिनेशन ही कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचा पाया। डी.के. शिवकुमार पर कई मामले लंबित हैं। मुख्यमंत्री पद पर बैठते ही इन मामलों के खुलने की आशंका शुरू से उनके इस कुर्सी तक पहुंचने में बाधा रही है।



कथित फॉर्म्युले पर विवाद: अंदर ही अंदर यह समीकरण भी खूब फैलाया गया कि ढाई साल सिद्धारमैया मुख्यमंत्री रहेंगे और फिर शिवकुमार इस कुर्सी पर विराजेंगे। हालांकि इस समीकरण की घोषणा कभी सार्वजनिक तौर पर नहीं की गई। लेकिन खासतौर से शिवकुमार के खेमे वाले विधायकों को इस बात पर विश्वास है कि पार्टी आलाकमान उन्हें मुख्यमंत्री बनाएगा। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बारे में भी कहा जाता है कि वह भीतर ही भीतर शिवकुमार को मुख्यमंत्री बनाए जाने के समर्थक हैं, लेकिन खुलकर इस पर पॉलिटिक्स नहीं खेलते हैं।



यथास्थिति कब तक: गांधी परिवार फिलहाल यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में है। उसे पता है कि इस नाजुक दौर में सिद्दारमैया को खोना कांग्रेस के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। लेकिन राजनीति में लंबे समय तक यथास्थिति का बने रहना संभव नहीं होता। विरोधी स्वरों को न निपटाया जा रहा है और न ही एडजस्ट किया जा रहा है। यही वजह है कि कर्नाटक में कांग्रेस ही कांग्रेस से लड़ती दिखाई देती है।



ज्यादा वक्त नहीं: कांग्रेस के भीतर कलह, लीडरशिप के लिए खींचतान एक स्थायी समस्या के रूप में बनी हुई है - जिसे राहुल गांधी न हल कर पा रहे हैं और न ही इस पर कोई हस्तक्षेप कर रहे हैं। कुर्सी की चाह कांग्रेस के नेताओं में इस कदर बढ़ रही है कि वे इसके लिए अपनी पार्टी की सरकार तक कुर्बान करने को तैयार हो जाते हैं। क्या कर्नाटक भी देर-सबेर इसी दिशा में बढ़ेगा? इसका जवाब कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व को ही देना होगा। अभी जो घमासान चल रहा है, उससे साफ है कि राहुल गांधी के पास ज्यादा समय नहीं है, जल्द ही उन्हें हस्तक्षेप करना होगा।

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