पूर्वी चंपारण,06 जुलाई (Udaipur Kiran) । डॉ० मुखर्जी सच्चे अर्थों में मानवता के उपासक और सिद्धान्तवादी थे। उन्होने बहुत से गैर कांग्रेसी हिन्दुओं की मदद से कृषक प्रजा पार्टी से मिलकर प्रगतिशील गठबन्धन का निर्माण किया। इस सरकार में वे वित्त मंत्री बने। इसी समय वे सावरकर के राष्ट्रवाद के प्रति आकर्षित हुए और हिन्दू महासभा में सम्मिलित हुए। उक्त बाते रविवार को पूर्व केन्द्रीय मंत्री सह सांसद राधामोहन सिंह ने मोतिहारी विधानसभा क्षेत्र के रुलही में डॉ० श्यामाप्रसाद मुखर्जी की जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में कही।
कार्यक्रम की शुरूआत डॉ० मुखर्जी की प्रतिमा पर श्रद्धा सुमन अर्पित कर किया गया। इस अवसर पर फिर सांसद राधामोहन सिंह ने डॉ० मुखर्जी के जीवन और सामाजिक- राजनीतिक यात्रा पर प्रकाश डालते हुए कहा कि डॉ० मुखर्जी ने प्रारंभिक और उच्च शिक्षा भारत मे ही हासिल की और लॉ करने के बाद 1926 में इंग्लैण्ड से बैरिस्टर बनकर स्वदेश लौटे। वह विलक्षण प्रतिभा के स्वामी थे। उन्होंने भी अल्पायु में ही उल्लेखनीय सफलताएँ अर्जित कर ली थीं। 33 वर्ष की अल्पायु में वे कलकत्ता विश्वविद्यालय के कुलपति बने। इस पद पर नियुक्ति पाने वाले वे सबसे कम आयु के कुलपति थे। एक विचारक तथा प्रखर शिक्षाविद् के रूप में उनकी उपलब्धि तथा ख्याति निरन्तर आगे बढ़ती गयी।
श्री सिंह ने कहा कि
अपनी विशिष्ट रणनीति से उन्होंने बंगाल के विभाजन के मुस्लिम लीग के प्रयासों को पूरी तरह से नाकाम कर दिया। 1942 में ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न राजनैतिक दलों के छोटे-बड़े सभी नेताओं को जेलों में डाल दिया। डॉ० मुखर्जी इस धारणा के प्रबल समर्थक थे कि सांस्कृतिक दृष्टि से हम सब एक हैं। इसलिए धर्म के आधार पर वे विभाजन के कट्टर विरोधी थे। वे मानते थे कि विभाजन सम्बन्धी उत्पन्न हुई परिस्थिति ऐतिहासिक और सामाजिक कारणों से थी। वे मानते थे कि आधारभूत सत्य यह है कि हम सब एक हैं। हममें कोई अन्तर नहीं है। हम सब एक ही रक्त के हैं। एक ही भाषा, एक ही संस्कृति और एक ही हमारी विरासत है। परन्तु उनके इन विचारों को अन्य राजनैतिक दल के तत्कालीन नेताओं ने अन्यथा रूप से प्रचारित-प्रसारित किया।
गाँधी जी और सरदार पटेल के अनुरोध पर वे भारत के पहले मंत्री मण्डल में शामिल हुए। उन्हें उद्योग जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी सौंपी गयी। संविधान सभा और प्रान्तीय संसद के सदस्य और केन्द्रीय मन्त्री के नाते उन्होंने शीघ्र ही अपना विशिष्ट स्थान बना लिया। किन्तु उनके राष्ट्रवादी चिन्तन के चलते अन्य नेताओं से मतभेद बराबर बने रहे। फलत: राष्ट्रीय हितों की प्रतिबद्धता को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता मानने के कारण उन्होंने मंत्रीमंडल से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने एक नई पार्टी बनायी जो उस समय विरोधी पक्ष के रूप में सबसे बड़ा दल था। अक्टूबर, 1951 में भारतीय जनसंघ का उद्भव हुआ। डॉ० मुखर्जी जम्मू कश्मीर को भारत का पूर्ण और अभिन्न अंग बनाना चाहते थे। उस समय जम्मू कश्मीर का अलग झण्डा और अलग संविधान था। वहाँ का मुख्यमंत्री, वजीरे-आज़म अर्थात् प्रधानमन्त्री कहलाता था। संसद में अपने भाषण में डॉ० मुखर्जी ने धारा-370 को समाप्त करने की भी जोरदार वकालत की। अगस्त 1952 में जम्मू की विशाल रैली में उन्होंने अपना संकल्प व्यक्त किया था कि या तो मैं आपको भारतीय संविधान प्राप्त कराऊँगा या फिर इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये अपना जीवन बलिदान कर दूँगा।
उन्होंने तात्कालिन नेहरू सरकार को चुनौती दी तथा अपने दृढ़ निश्चय पर अटल रहे। अपने संकल्प को पूरा करने के लिये वे 1953 में बिना परमिट लिये जम्मू कश्मीर की यात्रा पर निकल पड़े। वहाँ पहुँचते ही उन्हें गिरफ्तार कर नज़रबन्द कर लिया गया। 23 जून 1953 को रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। कार्यक्रम की अध्यक्षता मुफस्सिल मंडल अध्यक्ष मुकेश कुमार सिन्हा एवं संचालन अतुल दास ने किया।
कार्यक्रम में मोतिहारी विधायक प्रमोद कुमार, पूर्व जिलाध्यक्ष प्रकाश अस्थाना, जिला महामंत्री योगेन्द्र प्रसाद, अमित सेन, मैनेजर सिंह, पीपराकोठी के मंडल अध्यक्ष उपेंद्र चौधरी, ढेकहाँ के मंडल अध्यक्ष नवल कुशवाहा, कामेश्वर चौरसिया, राजेश सिंह, मदन मोहन दास मुखिया एवं सुनील सिंह सहित बड़ी संख्या में लोग उपस्थित थे।
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(Udaipur Kiran) / आनंद कुमार
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